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________________ २७४ जैनधर्म-मीमांसा कहनेका जो उद्देश्य है उसपर अविश्वास नहीं करता तो उसकी निःशंकता कलंकित नहीं होती। जैसे कोई राम-रावणकी कथाको यदि सत्य न माने परन्तु उस कथासे जो पातिव्रत्यकी और परस्त्रीहरणनिषेधकी शिक्षा मिलती है उसपर विश्वास रखे तो उसकी निःशंकता बाधित न होगी । इसी प्रकार कोई स्वर्ग-नरककी अमुक रचनापर विश्वास नहीं करता किन्तु पुण्य-पापके फलपर विश्वास रखता है तो उसकी निःशंकता दूषित नहीं है। इसी प्रकार अन्य शास्त्रोंकी बात है । विशेष जिज्ञासाकी दृष्टिसे प्रश्न करना या ग्खोज करना भी निःशकताका दोष नहीं है। निःकांक्षता-असत्यकी सेवासे सुग्व न चाहना निःकांक्षता है । पहिले अध्यायमें कहा जा चुका है कि हमारा सुख समष्टिगत सुखके ऊपर अवलम्बित है । जो सुख दूसरोंके दुःखके ऊपर अवलम्बित है वह वास्तविक सुख नहीं है, न वह स्थायी हो सकता है । प्रथम अध्यायमें जो सुख बताया गया है उस सुखके सिवाय वह अन्य सुखोंकी कामना नहीं करता; और न उसके लिये न्यायकी हत्या करनेको तैयार होता है । दिगम्बर सम्प्रदायमें इसका लक्षण इस प्रकार किया गया है___ 'जो सुख दैवाधीन है, शीघ्र विनाशी है, जिसके बाँचमें दुःख है और जो पापका कारण है उस सुखमें अरुचि या लापरवाही रखना निःकांक्षता है।' __यहाँ वैषयिक सुखके चार दोष बताये गये हैं। प्रारम्भके तीन दोषोंको हम किसी तरह दूर नहीं कर सकते किन्तु उनके असरसे अपनेको बचा सकते हैं। इसका उपाय है. समता, सहन
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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