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जैनधर्म-मीमांसा
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स्त्री भी पतिसेवामें संलग्न है, परन्तु आवश्यकता हो या न हो, दिनरात जागरण करती है, भोजनादिकी भी पर्वाह नहीं करती तथा इस तरह स्वयं बीमार हो जाती है और समझती है कि मैंने पति-सेवाके लिये यह त्याग किया है। पहिली स्त्रीका प्रेम विवेकसहित होनेसे पुण्यरूप है । दूसरीका प्रेम विवेकशून्य होनेसे मोहरूप हो गया है और मोह तो पाप है । व्यवहारमें हम उसे भले ही पाप न कहें किन्तु वास्तवमें वह पाप है क्योंकि स्वपर-दुःखका कारण है । पहिली स्त्री पतिकी सेवा अधिक कर सकती है और दूसरी स्त्री सेवकताका प्रदर्शन करके अपने पतिको ऋणके जालमें जितना बाँधती है उतनी सेवा नहीं करती। पहिली स्त्री सम्यग्दृष्टि है, दूसरी मिथ्यादृष्टि; यद्यपि दूसरीका त्याग अधिक है । जो बात दो स्त्रियोंके विषयमें कही गई है वही बात पति, पुत्र आदि सभीके विषयमें कही जा सकती हैं । कहनेका तात्पर्य यह है कि जो बीमारियाँ कर्तव्य करनेके कारण अनिवार्य होनेसे आती हैं अथवा जो पैतृक हैं वे तो निष्पाप हैं या क्षन्तव्य हैं । किन्तु जो असंयमसे या अविवेकसे पैदा होती हैं वे पाप हैं । सम्यग्दृष्टि पहिली तरहकी बीमारियोंसे बिलकुल नहीं डरता,
और दूसरी तरहकी बीमारियोंसे बचा रहता है। अगर कभी प्रमादवश ऐसी बीमारियाँ आ जाती हैं तो भी वह उनसे निर्भय रहकर अपना कर्तव्य करता है।
मरणभय-मृत्युका डर भी सम्यग्दृष्टिको कर्तव्यमार्गसे गिरा नहीं सकता। जैसे वह जीवनको एक प्रकारका नाटक समझता है, उसी प्रकार मृत्यु भी उसके लिये एक प्रकारका नाटक है। कर्तव्यके लिये वह शरीरको पुराने कपड़ेके समान छोड़ देता है। मृत्युका भय