Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 285
________________ सम्यग्दर्शनके चिह्न २७१ नाम कोई न लेता। आज जो निंदा करते हैं, कल वे ही प्रशंसा करते हैं । किसकी निंदा-स्तुतिकी पर्वाह किये बिना सत्यकी पूजा करना चाहिये । इसी अश्लोक-भयकी पीड़ाके मारे सैकड़ों लोग * गंगा गये तो गंगादास, यमुना गये तो यमुनादास' की कहावत चरितार्थ करते हैं । वे बेपैंदीके लोटेकी तरह थोड़े थोड़े इशारेमें सब जगह नाचते हैं । वे चार दिनकी वाहवाहीमें भूलकर सच्चे और स्थायी यशको खोते हैं, अपनी अन्तरात्माका दिन-रात खून करते हैं और कल्याण-मार्गसे वञ्चित रहते हैं। परन्तु सम्यग्दृष्टि ऐसी वाहवाहीके नाशका भय नहीं करता। __ आकस्मिकभय-कर्तव्य-मार्गमें आकस्मिक घटनाओंका भय आकस्मिकभय या अकस्मात्भय कहलाता है । बिना किसी पर्याप्त कारणके बहानेबाजी करना अकस्मात्-भय है। कर्तव्य सामने है, परन्तु वह सोचता है कि 'अगर घरसे बाहर निकलनेपर सिरपर बिजली गिर पड़ी तो ? अगर रेलगाड़ी टकरा गई तो ? अगर मकान गिर पड़ा और मैं दब गया तो ? ' इस तरह बात-बातमें ' तो तो' करके वह कर्तव्यसे विमुख होता है । अगर कोई ऐसे आकस्मिक भयोंसे डर जाय तो कल्याण-पथपर कभी न चल सके । महावीर जब घरसे बाहर निकले तो उन्हें असाधारण बाधाएँ सहना पड़ी। रात्रिमें वे निर्जन अंधकारमें रहते थे, वहाँ उन्हें सर्प काट खाता तो ? जंगलमें कोई हिंस्र जन्तु आक्रमण करता तो ? या और कोई प्राकृतिक विपत्ति आई होती तो ?--ऐसे विचार अगर महावीरके हृदयमें उठे होते तो क्या वे महात्मा महावीर बन पाते ? क्या कोई भी मनुष्य ऐसे भयोंसे अपना या जगत्का कल्याण कर सकता है ! सम्यग्दृष्टि ऐसे भयसे कर्तव्यको नहीं छोड़ता ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346