Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 284
________________ जैनधर्म-मीमांसा होता है परन्तु अपनी असहायावस्थाके डरसे असत्यके आगे झुकनेको तैयार नहीं होता। इसी प्रकार अगर उसे कोई मार-पीटको धमकी दे या सचमुचमें मारे-पीटे तो भी वह निर्भय रहकर अपने सुमार्गपर चलता है। __ अश्लोकभय-पूजाप्रतिष्ठा मान-पान सत्कार वाहवाही आदि अनेक तरहके यशके छिन जानेका भय अश्लोकभय है । बहुतसे लोग ऐसे होते हैं कि मरनेसे नहीं डरते, चोर आदिसे नहीं डरते, आजीविका आदिका सहारा नष्ट हो जायगा-इसकी भी उनको चिन्ता नहीं होती; किन्तु मेरा नाम चला जायगा, मेरी प्रतिष्ठामें बट्टा लग जायगा-इससे बहुत डरते हैं । फल यह होता है कि अगर उनके प्रशंसक कुमार्गपर जा रहे हों तो वे भी कुमार्गपर जाते हैं, उसीका प्रचार करते हैं । वे सच्चे यशको नहीं जानते । यशकी बुनियाद सत्यपर होती है इसलिये सत्यके प्रचारसे अगर लोग बदनाम करते हैं तो सम्यग्दृष्टि उसकी पर्वाह नहीं करता । महावीर, बुद्ध, ईसा आदि अगर इस प्रकारकी वाहवाहकी पर्वाह करते तो आज उनका " दसधा परिग्रह-वियोग-चिंता इहभव, दुर्गति-गमन-भय परलोक मानिये ।" " छिनभंगुर संसार-विभव परिवार-भार जसु, ___ जहाँ उतपति तहाँ प्रलय जासु संयोग विरह तसु । परिग्रह-प्रपंच परगट परखि इहभव-भय उपजै न चित । ज्ञानी निसंक निकलंक निज ज्ञान-रूप निरखंत नित ॥" तात्पर्य यह है कि अगुप्तिभय कोई अलग भय नहीं मालूम होता, जो इह-भव-मरणभय और अत्राणभयमेंसे किसी एकमें स्पष्ट रूपमें शामिल न कर लिया जाय । वास्तवमें अगुप्तिभयके स्थानमें अश्लोकभय कहना चाहिये क्योंकि यह भय स्पष्ट रूपमें किसी अन्य भयमें शामिल नहीं होता।

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