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जैनधर्म-मीमांसा
रक्षा हो'-इस प्रकारका अंत्राणभय उन्हें क्रांतदास ( खरीदे हुए गुलाम ) की तरह बना देता है । सम्यग्दृष्टिमें यह अत्राणभय नहीं होता । कल्याणके मार्गमें यह भी बड़ी भारी बाधा है । सैकड़ों विद्वान् इसी अत्राणभयके कारण मिथ्यादृष्टि, अविचारक तथा अविकसित-ज्ञानी बने रहते हैं। लाखों और करोड़ों आदमी सत्यके मार्गसे इसी अत्राणभयके कारण पराङ्मुख रहते हैं । अत्राणभय सिर्फ श्रीमानों और शक्तिशालियोंकी तरफसे ही नहीं होता किन्तु साधारण जनताकी तरफसे भी होता है । ' कहीं समाजने बहिष्कृत कर दिया तो मेरे साथ कौन रहेगा ? अकेले हो जानेपर मेरी क्या दशा
१ दिगम्बर साम्प्रदायमें इस जगह ' अगुप्तिभय ' पाठ है परन्तु 'अत्राण' और ' अगुप्ति' इन दोनों शब्दोंका व्यवहारमें एक ही अर्थ है । 'त्र' धातुका अर्थ भी रक्षण है और 'गुप्' धातुका अर्थ भी रक्षण है । साहित्य तथा कोषमें भी ये समानार्थक हैं । ये समानार्थक शब्द जुदे जुदे अर्थोको प्रकट करनेके लिये ठीक नहीं मालूम होते । समयसारमें अत्राणभय-त्यागका अर्थ यह मानना किया है कि 'आत्मा नित्य है, उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता' । अगुप्तिमयत्यागका अर्थ यह मानना है—'आत्मा परम-ज्ञान-स्वरूप है, इसलिये इसमें किसीका प्रवेश नहीं हो सकता'। यह आध्यात्मिक ग्रन्थ है, इसलिये इसमें -हर-एक बातको आध्यात्मिक रूप दिया गया है । फिर भी इससे इतना अर्थ तो मालूम होता है कि अपने विनाशका भय अत्राणभय है, और चोर आदिका भय अगुप्तिभय है। कविवर बनारसीदासजीने अपने हिन्दी समयसारमें अत्राणभयके विषयमें लिखा है
'सो मम आतम दरब सर्वथा नहि सहाय धर ।
तिहि कारण रच्छक न होइ भच्छक न कोइ पर ॥ अगुप्तिभयके विषयमें लिखा है
सो मम रूप अनूप अकृत अनमित अटूट धन । ताहि चौर किम गहे ठौर नहिं लहे और जन ।।