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सम्यग्दर्शन के चिह्न
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मार्ग में बाधा नहीं डालता । जिसने कर्तव्यमय जीवन बनानेका निश्चय किया है; जो निर्लिप्त होकर सब काम करता है उसे बीमारी आदि कभी भी नहीं कर सकतीं ।
इसका यह मतलब नहीं है कि वह बीमार बना रहता है । उसकी दृष्टिमें तो बीमारी भी एक पाप है क्योंकि वह एक प्रकार की हिंसा है | बीमारीसे मनुष्य स्वयं दुःखी होता है इसलिये वह आत्महिंसा है और बीमार बनकर वह अपने कुटुम्बियों, मित्रों तथा अन्य सहयोगियोंको कष्ट देता है, उनसे परिचर्या कराता है, इसलिये वह परहिंसा भी है ।
प्रश्न- - जो कार्य अपने वशका है उसपर पुण्य-पापका विचार किया जा सकता है । रोग तो अपने वशका नहीं है इसलिये उसे पाप क्यों कहना चाहिये ?
उत्तर - अधिकांश रोग जिह्वालोलुपता आदि असंयमके फल होते हैं। अगर कोई मनुष्य इन्द्रियोंको वशमें रक्खे तो उसे कभी बीमार न होना पड़े । कोई मनुष्य बीमार होता है तो वह असंयमी सिद्ध होता है और असंयम तथा पाप एक ही हैं। हाँ, बीमारियाँ किसी लोकोपकार करनेके कारण आई हों तथा उस लोकोपकारके लिये अर्थात् कर्तव्य करनेके लिये उनका आना अनिवार्य हो तो फिर उन्हें पाप नहीं कह सकते । फिर भी उसमें विवेककी ज़रूरत है । स्पष्टताके लिये हम ऐसी दो स्त्रियोंकी कल्पना करें जिनके पति बीमार हैं । एक स्त्री ऐसी है जो कि पतिकी सेवाके लिये सदा सतर्क रहती है, लेकिन किसी तरह समय निकाल कर वह भोजन भी करती है, सोती भी है और इस तरह अपने स्वास्थ्यको सम्हालकर रखती है । दूसरी
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