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जैनधर्म-मीमांसा
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___ यदि रूप, रस आदिके समान परमाणुओंमें चैतन्य माना जायगा तो सर्व शरीरव्यापी एक अनुभव न होगा। बहुतसे परमाणु मिल करके एक पिंडरूप भले ही हो जावें परन्तु एक परमाणुका रूप दूसरे परमाणुका नहीं बन सकता, न सब परमाणुओंका रूप एक बन सकता है । प्रत्येक परमाणुके गुण जुदे जुदे हैं और वे सर्वदा जुदे ही रहते हैं। ऐसी अवस्थामें शरीरके प्रत्येक अवयवका या परमाणुका चैतन्य जुदा जुदा होगा। किन्तु क्रोध, मान, माया, लोभ, हर्ष, शोक, सुख, दुःख आदि आत्माकी जितनी वृत्तियाँ हैं वे शरीरके प्रत्येक परमाणुकी जुदी जुदी नहीं हैं-सर्व शरीरमें एक ही वृत्ति होती ह । इसलिये सिद्ध होता है कि ये वृत्तियाँ परमाणुओंकी नहीं हैं किन्तु सर्व शरीरमें व्यापक किसी अन्य वस्तुकी हैं, जो कि सर्व शरीरमें व्यापक और अखण्ड है। __प्रश्न—सर्व शरीरमें जो चैतन्यका अनुभव मालूम होता है वह भ्रम है । चैतन्यका अनुभव तो सिर्फ मस्तिष्कमें होता है। किन्तु मस्तिष्कसे सम्बन्ध रखनेवाला नाड़ीजाल सब शरीरमें फैला हुआ है इसलिये सब शरीरमें चैतन्य मालूम होता है ।
उत्तर-मस्तिष्क भी एक परमाणुका बना हुआ नहीं है । वह भी अगणित परमाणुओंका पिंड है इसलिये मस्तिष्कका भी एक चैतन्य नहीं कहा जा सकता। किन्तु मस्तिष्कमें जितने परमाणु हैं एक समयमें, उतने ही क्रोध मान आदि भाव होंगे । परन्तु ऐसा नहीं होता, इसलिये अन्तमें जाकर सबमें व्यापक एक अखण्ड तत्त्व मानना पड़ता है।
प्रश्न-अनेक परमाणु मिलकर जब बँध जाते हैं तब उनके गुण