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जैनधर्म-मीमांसा
निर्वेदी मनुष्यकी यह इच्छा रहती है कि मेरे हिस्सेका जितना अन्न है, जितना वस्त्र है और जितना स्थान है उतना ही मुझे ग्रहण करना चाहिये । देशमें जितनी सामग्री और जितने निवासी हैं उनमें I उसका हिस्सा कर लेनेपर जो एक भाग उपलब्ध हो उतनी सामग्रीका सेवन विषय-भोग नहीं कहलाता । इससे अधिकको विषय-भोग कहते है जिसमें निर्वेदीकी आसक्ति नहीं रहती। अगर किसी कारणवश वह अधिक सामग्रीका भोग करता है तो ऐसा वह अनिच्छापूर्वक करता है और इसके लिये अपनेको धिक्कारता है । अनिच्छापूर्वक ग्रहण करने और धिक्कारनेका प्रयोजन यह है कि वह जब भी संभव हो तभी उस अधिक सामग्रीका भोग करना छोड़ दे और जबतक न छोड़ सके तबतक वह समाजका अर्थात् उन लोगोंका, जिनको कि अपना हिस्सा पूरा नहीं मिलता है, अपनेको अपराधी समझे । इस तरह यह निवद, सिर्फ निषेधात्मक नहीं है किन्तु, विश्वकल्याण के लिये विधायक कार्यक्रमका एक अङ्ग है ।
प्राणियोंके ऊपर दयाभाव रखना अनुकम्पा है । मैत्री, सहानुभूति आदि इसके नामान्तर हैं। कोई प्राणी दुःखी न हो, इस प्रकारकी भावना, अथवा दूसरोंको सुखी बनानेकी भावना, अनुकम्पा है । प्रथम अध्यायमें कहा जा चुका है कि अपने कल्याणको विश्व-कल्याण के रूप में परिणत कर देने से अपना वास्तविक कल्याण हो सकता है । बिना अनुकम्पाके यह बात नहीं हो सकती । अनुकम्पाके द्वारा परस्पर सहायतासे दुःखमें कमी होती है । इसलिये अनुकम्पा भी कल्याणके साधनका अंग है ।
कल्याणके मार्ग में दृढ़ विश्वास रखना आस्तिक्य है । आस्तिक
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