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सम्यग्दर्शनके चिह्न
शब्दके जुदे जुदे समयमें जुदे जुदे अर्थ रहे हैं । ' जो आत्मा, परलोक आदिको माने वह आस्तिक और जो इन्हें न माने वह नास्तिक ' ऐसी एक परिभाषा है। ' जो वेदको माने वह आस्तिक और जो वेदको न माने वह नास्तिक' ऐसी दूसरी परिभाषा है । जब आस्तिक और नास्तिक स्तुति-निंदासूचक शब्द हो गये, सिर्फ विचारसूचक न रहे तब दूसरे सम्प्रदायोंकी निंदा करनेके लिये उनको नास्तिक कहा जाने लगा । और बढ़ते बढ़ते बात यहाँ तक बढ़ी कि जो अपने विचारोंका न हो वह नास्तिक कहा जाने लगा । इस प्रकार आस्तिक-नास्तिक शब्दोंकी अनेक परिभाषाएँ हैं । परन्तु इन शब्दोंका सीधा और सरल अर्थ यह है कि जो किसी बातको 'स्वीकार करे' वह आस्तिक और ' जो स्वीकार न करे ' वह नास्तिक | ऐसी बहुत-सी बातें हैं जिन्हें हम स्वीकार करते हैं, उनके विषयमें हम आस्तिक हैं; और ऐसी बहुतसी बातें हैं जिन्हें हम स्वीकार नहीं करते, उनके विषयमें हम नास्तिक हैं । इस प्रकार हरएक मनुष्य किसी दृष्टिसे आस्तिक और किसी दृष्टिसे नास्तिक है ।
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प्रश्न – जब प्रत्येक मनुष्य आस्तिक और नास्तिक है तब सम्यग्दृष्टिको आस्तिक कहनेकी क्या आवश्यकता है ?
उत्तर - किसी मनुष्यको आस्तिक या नास्तिक कहते समय हमें यह विचार करना चाहिये कि उपयोगी तत्त्वके विषयमें वह कैसा ह् । प्रत्येक प्राणीका अंतिम लक्ष्य सुख है । इसलिये अगर कोई प्राणी सुखके अर्थात् कल्याणके सच्चे मार्गमें आस्तिक है और बाकी बातों में नास्तिक है तो हम उसे आस्तिक ही कहेंगे; और जो प्राणी कल्याणमार्ग में नास्तिक है और बाकी बातोंमें आस्तिक है, उसे हम नास्तिक
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