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२५.
जैनधर्म-मीमांसा ही कहेंगे । आस्तिकता-नास्तिकता अमुक पोथी-पुस्तक, व्यक्ति आदिके विश्वास अविश्वासपर निर्भर नहीं है किन्तु कल्याण-मार्गके विश्वासअविश्वासपर निर्भर है । इस परिभाषाके अनुसार आस्तिकता एक प्रशंसनीय तथा आवश्यक गुण हैं । अगर यह परिभाषा न ली जाय तो अन्य परिभाषाके अनुसार सम्यग्दृष्टि जीव आस्तिक भी हो सकता है और नास्तिक भी हो सकता है। वैसी आस्तिकताओं और नास्तिकताओंसे उसका सम्यक्त्व नष्ट नहीं होता। हाँ, कल्याण-मार्गपर दृढ़ आस्थारूप आस्तिक्य उसमें ज़रूर होगा।
निर्भयता–सम्यग्दृष्टिमें सात प्रकारके भय नहीं होते । श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायमें इस विषयमें थोड़ा-सा पाठभेद और कुछ अर्थभेद है। श्वेताम्बर पाठ यह है-१ इहलोक-भय, २ परलोक-भय, ३ वेदना-भय, ४ मरण-भय, ५ आदान-भय, ६ अश्लोक-भय, ७ अकस्माद्भय ।
दिगम्बर-पाठमें आदान-भयके स्थानमें अत्राणभय और अश्लोकभयके स्थानमें अगुप्तिभय है।
इहलोकभय-लोकका अर्थ है समाज । इहलोकका अर्थ है अपना समाज अर्थात् मनुष्य-समाज । और परलोकका अर्थ है विजातीय समाज अर्थात् पशु आदि समाज । सम्यग्दृष्टिको किसीसे भी भय नहीं होता । दिगम्बर सम्प्रदायमें इसका अर्थ इस जन्मसे भय और परलोक-भयका अर्थ है मरनेके बादके दूसरे जीवनसे भय । दोनोंमेंसे कोई भी अर्थ लिया जाय परन्तु सम्यग्दृष्टिको ये सब भय नहीं होते इसलिये इन अर्थों में कुछ भी आपत्ति नहीं है ।
संसारमें व्यक्तिगत (खुदका ) स्वार्थ और समष्टिगत (सबका)