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जैनधर्म-मीमांसा
सम्यग्दृष्टि जीव में प्रशम, संवेग, निर्वेद, अमुकम्पा और आस्तिक्य ये पाँच चिह्न पाये जाते हैं।
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तत्त्वके मिथ्या पक्षपातसे उत्पन्न होनेवाले दुराग्रह आदि दोषोंकी शान्तिको प्रशम कहते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव सर्वधर्मसमभावी होता हैं, यह बात पहिले कह चुका हूँ । प्रशमका अर्थ भी वही है ।
सांसारिक बन्धनोंका भय संवेग है। अर्थात् जिन वृत्तियोंसे प्राणिसमाज एक दूसरेका और अपना अकल्याण कर रहा है और उनके कारण वह जैसे जैसे कष्ट भोग रहा है उनसे उसे भय अर्थात् दूर रहनेकी उत्कट वृत्ति पैदा होती है। वह पाप-रूप अर्थात् अकल्याणरूप वृत्तियोंसे अलग होनेकी पूरी चेष्टा करता है। और जब तक वह उन वृत्तियोंका अभाव नहीं कर पाता तब तक उसके मनपर एक प्रकारकी अशान्ति, घबराहट, भयं यां चिन्ता सवार रहती है। यही संवेग है।
जो अकल्याणकारी है वही बन्धन हैं । जो कल्याणकारी है उसे बन्धन नहीं कह सकते । सत्य बन्धन नहीं हैं; असत्य बन्धन हैं । बन्धनका काम इच्छित स्थानमें जानेसे रोकना है। हिंसा, असत्य आदि पाप हमको इच्छित स्थानमें ( सुखरूप स्थानमें) जानेसे रोकते हैं इस - लिये ये बन्धन हैं ।
प्रश्न – किसी सीमाके भीतर रहना पड़े इसे बन्धन कहते हैं । इसी ष्टिसे सत्य आदि एक प्रकारको बन्धन हैं क्योंकि सत्यसे वचनपर अङ्कुश पड़ता है और असत्य बोलनेमें स्वतन्त्रता' है क्योंकि इससे मनचाही छूट मिलती हैं।
उत्तर---प्रत्येक गुणका एक आभास हुआ करता है। कभी