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सम्यग्दर्शनका स्वरूप
और वेताम्बराचार्योंके द्वारा बनाये गये भी बनाये हुए नहीं हैं इसलिये इनके रखने से कुछ बनता - बिगड़ता नहीं है ।
वलियों या दशपूर्वियोंद्वारा कहा गया हो । वर्तमानके दिगम्बर शास्त्र शास्त्र इन चारोंमेंसे किसीके अक्षरपर विश्वास रखने-न
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दूसरी बात यह है कि शास्त्र आदिके विश्वास - अविश्वासपर सम्यक्त्व निर्भर नहीं है । शास्त्रका विश्वास अविश्वास तो साम्प्रदायिकतासे सम्बन्ध रखता है । सम्यक्त्व किसी सम्प्रदायका अंग नहीं, धर्मका अङ्ग है । सम्यक्त्वके साम्प्रदायिक अर्थको छोड़कर हमें धार्मिक अर्थ लेना चाहिये । इसलिये अक्षरका अर्थ शास्त्रका अक्षर नहीं, किन्तु सत्यका अक्षर करना चाहिये । अक्षर - श्रुतज्ञान ( विचारात्मक ज्ञान) का एक छोटा माप है । जो सत्यके एक अक्षरको भी नहीं मानता उसे मिथ्यादृष्टि कहना चाहिये । " न मानना' का अथ भी यहाँ दुराग्रह या एकान्तवाद है । मैं पहिले कह चुका हूँ कि सम्यदृष्टि जीव सत्यका परमभक्त होता है । वह आवश्यक सत्यको ग्रहण कर बाक़ी सत्यपर उपेक्षा भले ही कर जाय परन्तु दुराग्रह से सत्यका विरोध नहीं करता । इसलिये उसके विषयमें यह कहा जाता है कि वह सत्यके अक्षरके विषयमें भी अविश्वास नहीं करता ।
सम्यग्दर्शनके चिह्न
सम्यग्दृष्टिका बहुत कुछ विवेचन हो जानेपर भी उसकी सामग्री अधूरी ही रहती है । इसलिये उसे पहिचानने के लिये कुछ चिह्नोंका विवेचन और किया जाता है।
* सुत्तं गणहरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धिकहियं च ।
सुदकेवलणा कहियं अभिण्णदसपुव्वकहियं च ॥ ३४ ॥ - भ० आ०