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जैनधर्म-मीमांसा
धर्म अत्यन्त आवश्यक है । प्रथम अध्यायमें इस विषयपर उचित विवेचन किया गया है । प्राचीनता के कारण जैनधर्मको मान देनेबाले तो और भी कच्ची जगहपर हैं । वर्तमानके सब धर्मोकी अपेक्षा हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप कहीं अधिक पुराने हैं परन्तु इसीलिये वे कल्याणकर या विश्वसनीय नहीं हैं ।
छोटे बच्चोंको कुत्ता, बिल्ली आदिकी कहानियोंसे शिक्षा दी जाती है परन्तु बड़ी अवस्था में उन्हें ऐसी कहानियोंसे संतोष नहीं होता । उनको अन्य प्रामाणिक कथाओंकी आवश्यकता होती है। बच्चेको रबरकी या लकड़ी की नकली गुड़िया काम दे जाती है, परन्तु युवावस्थामें असली गुड़िया (पत्नी) की ज़रूरत होती है ।
धर्मके विषय में भी यही बात है । प्रारम्भमें कल्पित बातों से किसीको संतोष भले ही होता हो, परन्तु वह सदा काम नहीं दे सकता । सम्यग्दृष्टि बननेके लिये उनका छोड़ना आवश्यक है । फिर भी कोई बच्चा बना रहना चाहता है तो भले ही बना रहे, परन्तु नकली गुड़ियोंके लिये असली गुड़ियोंकी हत्या नहीं की जा सकती । अगर हम मिध्यादृष्टियों या द्रव्य- सम्यक्त्वियोंको भावसम्यक्त्वी बनाना चाहते हैं तो कच्ची बुनियादको हटाकर पक्की बुनियाद करना पड़ेगी ।
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प्रश्न - आप सुखमार्गपर ही इतना जोर देते हैं। बाकी बातोंकी असत्यताकी पर्वाह नहीं करते; किन्तु शास्त्रोंमें तो कहा है कि जो एक अक्षर भी न माने वह मिध्यादृष्टि है * ।
उत्तर - जिस शास्त्रमें मिध्यादृष्टिकी यह परिभाषा की गई है उसमें शास्त्र भी उसे कहा गया है जो गणधरों, प्रत्येकबुद्धियों, श्रुतके
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* पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिद्दिहं ।
सेस रोचतो विहु मिच्छाइट्ठी मुणेयव्वो । ३९ - भगवती आराधना ।"