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सम्यग्दर्शनका स्वरूप
जाना पड़ेगा । ' जहाँ जाना पड़ेगा' वही परलोक है । हमारा वर्तमान जीवन भी किसी भूत जीवनका ' परलोक ' है । इस तरह अनादिसे भव-परिवर्तनकी परम्परा चली आ रही है ।
इस प्रकार नित्यताका विश्वास रखनेसे वह निर्भय हो जाता है । ऐहिक स्वार्थ उसे इतने तुच्छ मालूम होने लगते हैं कि वह उनके लिये स्व-पर-कल्याणकारी नीतिका अन्तरंग से या बहिरंगसे भंग नहीं करना चाहता । कल्याणकर होनेसे आत्माकी नित्यताका विश्वास भी सम्यग्दर्शन है ।
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शंका – आत्माको नित्य, या परलोक, माननेसे लाभ तो ज़रूर है परन्तु हानि भी कुछ कम नहीं है। दुनियाँमें धर्मवेोषियोंने जो लूट मचाई है वह परलोक के नामपर मचाई है । पोपोंने, ब्राह्मणोंने, धर्मगुरुओंने अपनेको परलोकका 'लेटर बॉक्स ' बतलाकर दुनियाको खूब ठगा है । इसके अतिरिक्त परलोककी आशा में मनुष्य अकर्मण्य हो जाता है । वह जिम्मेदारी और जगत्-हितकी पर्वाह नहीं करता ।
समाधान — हमें अपनी सारी व्यवस्थाएँ सत्यके आधारपर ही खड़ी करना चाहिये । अगर आत्मा प्रमाणसे सिद्ध होता हो तो उसे नित्य मानकर हमें कल्याणपथका निर्माण करना चाहिये ।
दूसरी बात यह है कि ठगोंके डरसे एक कल्याणकर वस्तुका लोप नहीं किया जा सकता | बीमारीके डरसे भोजनका त्याग नहीं किया जाता है । चन्दनमें सर्प रहनेपर भी चन्दन लाया जाता है । हमें किसी अच्छी वस्तुका नहीं किन्तु उसके साथकी बुराइयोंका त्याग करना चाहिये । पोप आदिकी लूट आत्माकी