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जैनधर्म-मीमांसा
वलम्बी हो, जिसका आत्मा समभावसे भावित है वह मोक्ष प्राप्त करता है; इसमें कोई संदेह नहीं ।
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एक दूसरे आचार्य कहते हैं कि आत्मा ही आत्माका उद्धार करता है; किसी संघ या सम्प्रदायसे आत्माका उद्धार नहीं है । जिनेन्द्रने समभावमें ही सम्यक्त्व कहा है X ।
कहनेका मतलब यह है कि सुखरूप समभाव और समभावकी उत्पादक दृष्टिपर ही जैनधर्म ज़ोर देता है। इनको नुकसान न पहुँचाकर लोक और परलोकके विषयमें तथा अन्य वैज्ञानिक चर्चाओं में किसका क्या मत है इसकी वह पर्वाह नहीं करता। हाँ, सत्यकी दृष्टि तथा लोक-कल्याणमें परम्परा सहायक होनेसे जैनधर्मने अनेक बातों पर विस्तृत विचार किया है । किन्तु अगर कोई ऐसे विचारोंसे अर्ध सहमत या असहमत रहता है तो उसका जैनत्व या सम्यक्त्व नष्ट नहीं हो जाता । शर्त यह है कि वह स्याद्वादका, समभावका, या दूसरे शब्दों में प्रथम अध्यायमें बताये हुए सुखमार्गका पूर्ण श्रद्धालु हो, यथा-शक्ति पालक हो ।
दूसरे अध्यायमें जो अनेक बातोंका संशोधन किया गया है; उनमेंसे अनेक बातोंसे अगर कोई असहमत रहा हो, निमित्त न मिलनेसे उस संशोधनकी तरफ किसीकी अगर दृष्टि न जा पाई हो तो उसका यह अर्थ नहीं है कि वह मिथ्यादृष्टि रहा है; उस संशोधनको पढ़करके भी अगर कोई उसकी सब बातों से सहमत न हो तो भी वह
* संघो कोविन तारइ कहो मूलो तहेब णिपिच्छो ।
अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पावि झाएहि ॥
x समभावे जिणदिहं रायाईदोसचत्तेण ।
-- ( ढाढसी गाथा )