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जैनधर्म-मीमांसा
नित्यताका परिणाम नहीं किन्तु मिथ्यात्वका परिणाम है। जो लोग धर्मका सम्बन्ध आत्मशुद्धिसे नहीं समझते हैं, पुण्य-पापको भी देनेलेनेकी चीज़ समझते हैं उनको इस प्रकार लुटना पड़ता है। जैनधर्मने इस प्रकार देने-लेनेकी जड़को शुरूसे ही काट दिया है । इस लिये उसमें इस प्रकार लूटको ज़रा भी गुंजाइश नहीं है। हाँ, जैनकुलमें पैदा हो करके भी जो जैनत्वसे शून्य हैं वे लुटें तो भले ही लुटें, इसमें जैनधर्मका क्या अपराध है ? ___ जो लोग अकर्मण्य हैं वे आत्मनित्यवादी नहीं हैं, किन्तु भोले, अज्ञानी और आलसी हैं। उनसे विवेकका क्या सम्बन्ध ? जो आत्मनित्यवादी हैं वे तो यह समझते हैं कि अगर यहाँ हम कुछ करेंगे तो परलोकमें प्राप्त करेंगे इसलिये वे कभी अकर्मण्य नहीं हो सकते। बैनधर्मका 'त्याग' या 'मुनित्व ' अकर्मण्यता नहीं है किन्तु स्वपर-कल्याणकारी साधना है । ' हमें दुनियासे क्या लेना है ? हम तो भगवानका भजन करते हैं, या परलोकपर नज़र रखते हैं' आदि बातें कहकर अपना धर्मात्मापन दिखलानेका अधिकार मनुष्यको तभी मिल सकता है जब वह समाजके द्वारा किये गये उपकारोंका बदला चुका दे और परलोकके ऊपर नज़र रखकर इस लोकमें खानापीना आदि बन्द कर दे । ' हमें इस लोकसे क्या मतलब' इस, वाक्यका सच्चा अर्थ तो यह है कि 'हमें स्वार्थसे क्या मतलब, ? जगत्के, हितमें हमारा हित है । दुःखोंको. विजय करनेमें हमें सुख, है.' । इस उदार भावनाके लिये आत्माका नित्यत्वका सिद्धान्त. बहुत सहायक है। इस तरह वह वस्तुस्थितिकी, दृष्टि से भी सत्य है और कल्याणकारिताकी दृष्टिसे भी सत्य है। इसलिये सम्यग्दर्शनका कारण है।