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जैनधर्म-मीमांसा
परमाणुको अपना अनुभव होगा। दोका स्वानुभव कभी एक नहीं हो सकता। यदि मस्तिष्कका प्रत्येक परमाणु अपना अपना अनुभल करता है तो समझ शरीर या समग्र मस्तिष्ककी जो एक वृत्ति पाई जाती है वह किसकी है ? वह अखण्ड कृत्ति एक परमाणुकी तो कही नहीं जा सकती, अन्यथा बाकी परमाणु निरर्थक पड़ जायँगे
और सब मिलकर एक स्वानुभव कर नहीं सकते क्योंकि चैतन्यको प्रत्येक परमाणुका स्वतंत्र गुण कहा जा सकता है-वह संयोगज कार्य नहीं है, यह बात पहिले सिद्ध की जा चुकी है । इस तरह चैतन्य एक स्वतंत्र गुण है और उसका गुणी भी स्वतंत्र है । उसीको आत्मा, जीव आदि शब्दोंसे कहते हैं। __ शंका-आपकी युक्तियोंसे चैतन्य एक स्वतन्त्र पदार्थ या तत्त्व सिद्ध हो जाता है । फिर भी एक आश्चर्य बना रहता है। जब
चैतन्य एक स्वतंत्र पदार्थ है तो वह भौतिक सम्मिश्रणोंके. अधीन स्यों है ? किसी चीज़में कोई दूसरी चीज़ मिलानेसे कीड़े पड़ जाते हैं, गोबर और विशिष्ट मूत्रके सम्बन्धसे तुरन्त बिच्छू पैदा होते हैं। रज-वीर्यके यथायोग्य सम्मिश्रणसे तुरन्त प्राणका संचार होता है । तो स्या असंख्य जीव फालतू फिरते रहते हैं कि जहाँ किसीने. कुछ निमित्त, मिलाया कि तुरन्त घुस गये ? जीव तो अपने शरीरमें रहते हैं। अगर किसीने, जीवोत्पत्तिके निमित्त मिलाये तो क्या वहाँ पैदा होनेके लिये अन्य शरीरस्थ जीव मर करके दौड़ आगे ? यदि, नहीं तो भौतिक निमित्त मिलनेसे ही जीव कहाँसे आ जाते हैं ! एक तरफ़ तो जीव भौतिक सिद्ध नहीं होता, दूसरी तरफ भौतिक विकारोंके साथ उसको इतना अविमाभावः सम्बन्ध मालूम होता है कि वह आश्चर्यजनक पहेली बन जाता है।