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सम्यग्दर्शनका स्वरूप
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एक-रूप मालूम होते हैं । जैसे मिश्रीकी एक डलीका स्वाद एक मालूम होता है, यद्यपि डलीके प्रत्येक परमाणुका स्वाद जुदा जुदा है । इसी प्रकार मस्तिष्कके या शरीरके प्रत्येक परमाणुका चैतन्य तो जुदा जुदा है किन्तु सब परमाणुओंके पारस्परिक बन्धके कारण वह एकरूप मालूम होता है।
उत्तर-स्कंधोंमें गुणोंका प्रतिभास एक रूप होने लगता है यह बात मिथ्या है । एक ही स्कंधमें अनेक रंग, रस आदि पाये जाते हैं। एक ही आम किसी अंशमें हरा और किसी अंशमें पीला होता है; ऊपर मीठा और गुठलीके पास खट्टा होता है। जिन स्कंधोंमें हमें अंश-अंशमें विशेषता नहीं मालूम होती है वहाँ भी सदृशता होती है, एकता नहीं। मिश्रीकी डलीका एक अंश दूसरे अंशके समान है, एक नहीं । मस्तिष्कके परमाणु अगर एक सरीखे हो गये हैं तो उनका चैतन्य एक-सरीखा होगा, एक नहीं। परन्तु एक सरीखा भी हम तब कहें जब वहाँ बहुतसे चैतन्य हों। समानता बहुतमें होती है, एकमें नहीं। खैर, इस विषयमें एक और महत्त्वपूर्ण बात कही जा सकती है। ___ दूसरे पदार्थके ज्ञानमें हमें अनेकमें एकका भ्रम हो सकता है। क्योंकि दूसरे पदार्थका ज्ञान हमें इन्द्रियोंके द्वारा करना पड़ता है और इन्द्रियोंकी तराजू इतनी स्थूल है कि प्रत्येक परमाणुकी तौल उसमें नहीं हो सकती। परन्तु स्वानुभवमें यह बात नहीं है । स्वानुभव चैतन्यका निर्विवाद स्वरूप है । जहाँ चैतन्य अभिव्यक्त होता है वहाँपर, वस्तुका ज्ञान हो चाहे न हो परन्तु, अपना ज्ञान ( अनुभव ) तो होता ही है। इसलिये मस्तिष्क या शरीरके प्रत्येक