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जैनधर्म-मीमांसा
बचता उसीका संग्रह करते । इससे उपर्युक्त कारणों से प्रथम कारण ही जोरदार मालूम होता है।
दिगम्बर-सम्प्रदायने श्रुतका संग्रह न करके बहुत हानि उठाई है, क्योंकि प्राचीन श्रुतका कोई नाम-निशान न होनेसे जिस किसी दिगम्बरका बनाया हुआ ग्रन्थ महावीरकी वाणी कहलाता है । अमुक आचार्यकी रचना शास्त्र है और अमुक आचार्यकी रचना शास्त्र नहीं है इस विषयमें कोई जोरदार हेतु नहीं दिया जाता। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें यह सुविधा है कि कोई कितना ही बड़ा आचार्य क्यों न हो हम उसकी रचनाको श्रुत माननेके लिए बाध्य नहीं हैं; किन्तु दिगम्बरोंमें यह सुविधा नहीं है। वहाँ तो आचार्योंकी रचना ही श्रुत है। किसकी रचनासे किसकी रचनाका माप किया जाय इसका कोई साधन नहीं है । अगर कोई संग्रह होता तो उसको कसौटी बनाकर हम सब शास्त्रोंकी जाँच कर सकते थे। जो उसमें न मिलता उसे उस आचार्यके मत्थे मढ़ते; आजकलके समान महावीरके मत्थे न मढ़ते। खैर ! जो हो गया सो हो गया । अब हमारा कर्तव्य है कि दोनों सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंको अर्ध-प्रामाणिक स्वीकार कर लें और उनमेंसे जो जो बात परीक्षामें कच्ची उतरती जाय उसे छोड़कर बाकीको प्रमाण मान लें। दोनों ही सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंमें सत्य और असत्यका मिश्रण हो गया है । इसके अतिरिक्त दोनोंके साहित्यमें ऐसी त्रुटियाँ भी हैं जिनकी पूर्ति एक-दूसरेके साहित्यसे हो सकती है । उदाहरणार्थ कुन्दकुन्दके अन्योंसे आध्यात्मिकताकी पूर्ति हो सकती है और श्वेताम्बर साहित्यसे अछूतोद्धार, स्त्री-पुरुष समानाधिकार, विधवाविवाह आदि समाज-सुधारक साहित्यका निर्माण किया जा सकता है।