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जैनधर्म-मीमांसा
जानेपर संयमका पालन नहीं हो सकता तथा मरनेके बाद कहीं भी जाओ प्रारम्भमें तो जीव असंयमी ही रहता है। ऐसी हालतमें सदाके लिए व्रत लेनेका कोई अर्थ नहीं है । इस स्थानपर भी गोष्ठामाहिलकी विचारधारा अव्यावहारिक तथा शब्दाडम्बर-मात्र है।
द्राविड़संघ-ऊपर जो मतभेद बतलाये गये हैं वे मतभेद श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हुए हैं; यद्यपि मतभेदोंके विषय साम्प्रदायिक नहीं हैं । द्राविड़ आदि संघ दिगम्बर सम्प्रदायमें हुए हैं। दर्शनसारके अनुसार द्राविड़संघके संस्थापक वज्रनन्दि कहे जाते हैं, और इनका समय वि० सं० ५२६ है। देवसेनने इस संघके मतका परिचय निम्नलिखित रूपमें दिया है:__'बीजमें जीव नहीं है, मुनियोंको खड़े होकर भोजन करनेकी
आवश्यकता नहीं है, कोई वस्तु प्रासुक नहीं है, वह सावद्य नहीं मानता, गृह कल्पित नहीं मानता । कछार, खेत, वसतिका वाणिज्य कराके मुनियोंका जीवन-निर्वाह करना बुरा नहीं है और न ठंडे 'पानीसे स्नान करना बुरा है'। __ ये सब मतभेद विचारणीय हैं। बीजमें जीव माननेकी बात जंचती नहीं है । इसका कोई विशेष कारण भी नहीं मालूम होता । सिर्फ एक साधारण कारण है कि बीजसे सजीव शरीर पैदा होता है इसलिये उसे भी सजीव मानना चाहिये । परन्तु यह कारण पर्याप्त नहीं है, क्योंकि सचित्त योनिके समान जैनदर्शनमें अचित्त योनि भी मानी गई है । राजवार्तिककारने 'गर्भजा मिश्रयोनयः' इस वार्तिकके भाष्यमें यहाँतक लिखा है कि ' मातुरुदरे शुक्रशोणितमचित्तं' माताके उदरमें शुक्र और शोणित अचित्त हैं। अगर इस अचित्त