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मतभेद और उपसम्प्रदाय
वीरका पूर्ण अनुयायी न मानेगा। हाँ, इन सबके वक्तव्यमें सत्यका चुनाव करेगा।
इस अध्यायमें ऐतिहासिक दृष्टिसे संक्षिप्त विवेचन किया गया है क्योंकि यह अध्याय जैन इतिहासका परिचय करानेके लिये नहीं लिखा गया है किन्तु ऐतिहासिक निरीक्षणसे जैनधर्मको समझनके लिये लिखा गया है।
जो लोग यह समझते हैं कि म० महावीरके समयमें जो जैनधर्म था वह अभी भी है, उसमें परिवर्तन नहीं हुआ है, न उसमें सुधारकी जरूरत है, उन्हें इस ऐतिहासिक विवेचनसे मालूम हो जायगा कि प्राचीनकालसे ही यहाँ सुधारकी आवाज उठती आ रही है और जैनधर्मको इतनी ठोकरें खानी पडी हैं कि वह विकृत हुए विना नहीं रह सकता था। इसलिये साम्प्रदायिक व्यामोहको तिलाञ्जलि दिये विना हम जैनधर्मके वास्तविक रूपको नहीं समझ सकते ।
लोग अपने ही सम्प्रदायको मूल सम्प्रदाय मान बैठते हैं उन्हें इस गलतीका त्याग करना चाहिये । यह भी न सोचना चाहिये कि जो सम्प्रदाय नष्ट हो गये हैं वे मिथ्या थे और हम सच्चे हैं। कभी कभी ऐसा होता है कि अधिक सत्य सम्प्रदाय नष्ट हो जाता है और अल्पसत्य सम्प्रदाय जीवित रह जाता है । उदाहरणार्थ यापनीय सम्प्रदायका नाम लिया जा सकता है। वर्तमानके दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायोंकी अपेक्षा यापनीय सम्प्रदायमें सत्यांश कुछ अधिक था । दिगम्बर सम्प्रदायने महावीरके चारित्रपर जोर दिया, श्वेताम्बरोंने महावीरके शास्त्र (ज्ञान ) पर जोर दिया जब कि यापनीयने दोनोंपर जोर दिया । फिर भी यापनीय सम्प्रदाय नष्ट हो गया। परन्तु इसलिये
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