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तीसरा अध्याय
कल्याणपथ अर्थात् मोक्षमार्ग प्रथम अध्यायमें आत्मकल्याण या सुखके विषयमें कहा जा चुका है। यहाँ यह बतलाना है कि उस सुखमार्ग-मोक्षमार्ग-कल्याणपथके कितने अवयव हैं । स्मरण रखना चाहिये कि यहाँ मार्गके भेद नहीं किन्तु मार्गके अंश या अवयवोंका कथन करना है। किसी भी कार्यमें सफलता प्राप्त करनेके लिये तीन बातोंकी आवश्यकता होती है। श्रद्धा, ज्ञान और क्रिया । इसीको जैन शास्त्रोंमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहा है। इन तीनोंका सामान्य विवेचन करके प्रथम अंश-सम्यग्दर्शनका विशेष विवेचन किया जायगा ।
श्रद्धाका अर्थ विवेकपूर्वक दृढ़ विश्वास है। जानना ज्ञान है और तदनुसार आचरण करना चारित्र है । प्रत्येक विपत्तिसे छूटनेके लिये इन तीनोंकी आवश्यकता है। जिस प्रकार कोई बीमार आदमी बीमारीसे छूटना चाहता है तो उसे इस बातका दृढ़ विश्वास अवश्य होना चाहिये कि मुझे बीमारी है और बीमारीसे छूटा जा सकता है। इसके बाद निदान और चिकित्साका ज्ञान होना चाहिये । इसके बाद आचरण होना चाहिये । तब बीमारी दूर होगी। इन तीनोंमेंसे एककी भी कमी होगी तो वह नीरोग न हो पायगा। सुखके लिये भी इन तीनों बातोंकी आवश्यकता होती है।