________________
२१७
सम्यग्दर्शनका स्वरूप mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm तता है, विज्ञान और विवेकसे शत्रुता है । इसलिये श्रद्धाका सम्यग्दर्शनसे कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता । यदि हो, तो सम्यग्दर्शन धर्मका अंग नहीं हो सकता । यदि ऐसे सम्यग्दर्शनको धर्मका अङ्ग माना जायगा तो धर्म एक तरहकी शराब हो जायगा। धर्ममें श्रद्धाको स्थान देनेसे धर्मके नामपर संसारमें घोर हिंसा हुई है, मनुष्य दलबन्दियोंमें फँसकर परस्पर शत्रु बन गया है तथा विज्ञान या नयी खोजोंका विरोधी बन गया है।
उत्तर-धर्मके नामपर जो अनर्थ हुए हैं वे धर्म, सम्यग्दर्शन या श्रद्धाने नहीं किये हैं, परन्तु वे सब अन्धविश्वासके फल हैं । अन्धविश्वास और श्रद्धामें जमीन-आसमानका अन्तर है। जिस प्रकार हीरा और कोयला एक ही तत्त्वके बने होनेपर भी दोनोंमें बड़ा अन्तर है, दूध और खूनमें एक ही तत्त्व होनेपर भी दोनोंमें बड़ा अन्तर है, उसी प्रकार एक-सी मनोवृत्तिपर अवलम्बित श्रद्धा और अन्धविश्वासमें भी अन्तर है। श्रद्धा और अन्धविश्वासमें इतनी ही समानता है कि दोनोंमें स्थिरता है परन्तु एककी स्थिरता दिव्य है जब कि दूसरेकी नारकीय है । श्रद्धामें विवेक है, अन्धविश्वासमें विवेकशून्यता है।
प्रश्न-श्रद्धाको अन्धविश्वास कहो चाहे न कहो परन्तु वह विश्वास तो है ही, और विश्वास तो अन्धा ही होता है। विवेकमें परीक्षा है, विश्वासमें परीक्षा कहाँ है ? परीक्षा करनेसे तो विश्वास या श्रद्धाका नाश हो जाता है। श्रद्धा और विवेकका एक जगह रहना ही मुश्किल है, फिर श्रद्धाके लिये विवेककी अनिवार्य आवश्यकता तो दूर है।