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जैनधर्म-मीमांसा
स्वदेश और स्वजातिकी भावना इस जीवनसे सम्बन्ध रखती है । परन्तु यह जीवन आत्माके महान् जीवनका एक छोटा सा अंश है। आत्माके महान् जीवनमें तो सारा जगत् कुटुम्ब है, स्वजाति है, स्वदेश है । इस तरह स्वदेश -स्वजाति-कुटुम्बकी भावना उसकी बहुत विशाल है । मान लो कि मेरे सौ मित्र हैं। मैं उनसे एकसा प्रेम करता हूँ । अब उनमें से एक मित्र मेरे घर आया । मैंने उसका विशेष शिष्टाचार किया । इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं बाकी निन्यानवे मित्रोंसे प्रेम नहीं करता; अथवा गृहागत मित्रसे नकली प्रेम कर रहा हूँ। बात यह है कि मैं प्रेम तो सभी मित्रोंसे समान करता हूँ परन्तु जो मित्र निकट सम्बन्धमें आ जाते हैं उनसे विशेष व्यवहार करना पड़ता है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव जगत्के सभी जीवोंसे मैत्री भाव रखता है किन्तु जो जीव निकट सम्बन्धमें आ जाता है उसके साथ विशिष्ट शिष्टाचार करता है । व्यवहारमें जिन्हें कुटुम्बी, सम्बन्धी आदि कहते हैं वे निकट सम्बन्धमें आये हुए मित्र हैं । यदि उनके स्थानपर कोई दूसरे जीव हों तो वह उनसे भी स्नेह करेगा । इस तरह उसका स्नेह न तो बनावटी है, न मोहरूप है । धोखा देना तो उसे कहते हैं कि बाहर से प्रेम हो, भीतरसे द्वेष हो; अवसरके ऊपर जिसमें कर्तव्यच्युति हो। मैं किसी व्यक्तिसे प्रेमका व्यवहार करूँ और उसके ऊपर विपत्ति आवे तो उसका साथ छोड़ दूँ तो उसे धोखा कहेंगे । सम्यग्दृष्टि ऐसा नहीं करता । वह अवसर आनेपर भी अपने कर्तव्यका पालन करता है । मतलब यह है कि सम्यग्दृष्टि व्यवहारको छोड़ नहीं देता किन्तु व्यवहारको व्यवहार समझकर करता है । मिथ्यादृष्टि जिस कार्यको मोहके वशमें होकर करता है
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