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जैनधर्म-मीमांसा
पुद्गल ( Matter ) के अणुओंका बन्धन शिथिल होता है इसलिये वे दूर दूर होते हैं अर्थात स्थूल पदार्थ फैलता है । पानी वाष्पीय तरल पदाथ होनेसे जल्दी और ज्यादः फैलता है । अगर वाष्पको रोकने की कोशिश की जायगी तो वह धक्का देगी | धक्का खानेसे रोकनेवालेमें गति पैदा होगी। इस तरह गर्मीसे गति पैदा होगी । एखिनों में भी इसी प्रकार गति पैदा होती है । यहाँ उष्णता और गतिमें कार्यकारणभाव है । इन दोको छोड़कर एञ्जिनमें और क्या है ? और ये दोनोंही गुण अणुओंमें पाये जाते हैं । अब कौन कह सकता है कि एञ्जिनमें कोई नया गुण पैदा हुआ है ? कहनेका मतलब यह है कि चाहे मदिराका उदाहरण लो चाहे किसी यंत्रका, उसमें हमें कोई ऐसा नया गुण न मिलेगा जो अणुओंमें न पाया जाता हो । अगर कोई नया गुण मिल भी जावे तो हमें उसकी स्थिति उस अणुपिंड नहीं किन्तु अणु में मानना चाहिये । विज्ञानका यह सिद्धान्त है कि शक्ति ( Energy ) न तो नयी पैदा होती है न उसका विनाश होता है । इसलिये मदिरा में या किसी यंत्र में कोई नयी शक्ति नहीं मानी जा सकती - वह शक्तियोंका रूपान्तर - मात्र है ।
अब हमें यह देखना चाहिये कि चैतन्य किस शक्तिका रूपान्तर है। पुद्गल ( Matter ) में जितने गुण उपलब्ध होते हैं उनमें कोई भी गुण ऐसा नहीं है जिसका रूपान्तर चैतन्य कहा जा सके । स्मरण रखना चाहिये कि एक गुणका रूपान्तर कभी दूसरे गुणरूप नहीं होता । काले रंगका नीला रंग हो जायगा परन्तु रंगका रंग ही होगा, रस (स्वाद) नहीं । इसी प्रकार रसका रूपान्तर रस, गन्धका रूपान्तर गन्ध, स्पर्शका रूपान्तर स्पर्श, आकारका रूपान्तर आकार