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जैनधर्म-मीमांसा
सम्यग्दर्शनका स्वरूप
प्रश्न- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें क्या अन्तर है ?
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उत्तर - ज्ञानसे दर्शनको अलग बतलाना अशक्य है । इसलिये जैन लेखकोंने सम्यक्त्वको केवलज्ञानगोचरे और निर्विकल्पे कह दिया है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति भी एक साथ मानी जाती है । इन दोनों कारणोंसे किसी किसीने सम्यग्दर्शनको सम्यग् - ज्ञानमें शामिल करके ' ज्ञान और क्रियासे मोक्ष होता है इतना ही कहा है । इसलिये सम्यग्दर्शनको किसी एक शब्दसे कह देना अशक्य है । हाँ अनेक तरहसे उसके चिह्नोंका या कार्योंका वर्णन करके उसकी तरफ इशारा किया जा सकता है ।
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जैनधर्मका कहना है कि किसी प्राणीका ज्ञान कितना ही विशाल और सत्य क्यों न हो परन्तु अगर उसको सम्यग्दर्शन प्राप्त न हो तो उसके ज्ञानको सम्यग्ज्ञान नहीं कह सकते और अगर उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाय तो उसका ज्ञान असत्य और अम्प भी हो तो भी वह सम्यग्ज्ञान कहलायगा । इससे हम सम्यग्दर्शन के स्वरूपका निर्णय कर सकते हैं कि सम्यग्दर्शन एक ऐसी दृष्टि है जो थोडेसे, और बाह्य दृष्टिसे असत्यरूप, ज्ञानका भी उपयोग वास्तत्रिक सत्यके या कल्याणपथके निर्णय करनेमें कराती है और ज्ञानको सार्थक कर देती है ।
१ सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरं ।
२ अस्त्यात्मनो गुणः कश्चित्सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् ।
३ ' नाणकिरियाहि मोक्खो '
- पञ्चाध्यायी ।
- पश्चाध्यायी ।
- विशेषावश्यक ।