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जैनधर्म-मीमांसा
इतनेपर भी गंग न माने । तब शास्त्रमें लिखा है कि मणिनागने आकर धमकाया कि अगर तू न मानेगा तो मैं मार डालूँगा । इसलिये गंगने अपनी भूल स्वीकार कर ली। __ भूल स्वीकार करानेके इस ढंगकी प्रशंसा नहीं की जा सकती परन्तु इसमें संदेह नहीं कि गंगके पक्षमें विचार-गाम्भीर्य नहीं है । गंगके गुरुने जैनदर्शनके समर्थनके लिये जो युक्तियाँ दी हैं वे वास्तवमें अकाटय हैं । परन्तु यहाँ एक आश्चर्य अवश्य होता है कि जब दो विशेषोंका ज्ञान एक साथ नहीं हो सकता; उसके लिये क्रमसे दो उपयोगोंकी आवश्यकता है । तब जैनलोग केवलज्ञानकी वर्तमान परिभाषा क्यों मानते हैं ? जब दो विशेषताओंका भी युगपत् ज्ञान नहीं होता तब क्या यह सम्भव है कि सब द्रव्योंकी अनन्तकालकी अनंत विशेषताओंका कोई एक साथ प्रत्यक्ष कर ले ? वास्तवमें केवलज्ञानकी वर्तमान मान्यता जैनदर्शनके ही विरुद्ध जाती है। इसमें अन्य अनेक बाधाएँ तो हैं ही जो ज्ञानके प्रकरणमें लिखी जायगी।
गंगकी शंकाका समाधान तो बहुत अच्छा हुआ परन्तु उसीके अनुसार केवलज्ञानकी परिभाषा सुधार लेनेकी आवश्यकता है।
रोहगुप्त-वीर निर्वाणके ५४४ वर्ष बाद रोहगुप्तने यह मतभेद प्रगट किया कि जीव और अजीवके अतिरिक्त नोजीवराशि और है। वृक्ष आदि नोजीव हैं। यह विचार युक्तिके आगे टिक नहीं सकता; क्योंकि इससे आत्मा मूलद्रव्य न रहेगा । इस प्रकार तीनके बदले एक ही राशि रह जायगी।
गोष्ठामाहिल-वीर निर्वाणके ५८४ वर्ष बाद गोष्ठामाहिलने