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जैनधर्म-मीमांसा
सचित्ताचित्तकी चर्चा में भी महत्त्व नहीं है । हाँ, मुनियोंकी आजीविकाकी बात अवश्य चिंतनीय है । यह बात अनुचित भले ही हो परन्तु उस समय के द्रव्यक्षेत्रकालभावको जाने विना हम उसकी अनुचितताका माप नहीं कर सकते । आजकल भी मुनियोंको चर्खा कातना चाहिए तथा ऐसा ही निरवद्य व्यापार करना चाहिये इस तरहकी आवाज़ उठ रही है और यह अनुचित नहीं है | चरणानु - योगके नियम सदा के लिये एकसे नहीं बन सकते ।
यापनीय ( गोप्य ) संघ - यह संघ दिगम्बरोंके आचारका और श्वेताम्बरोंके सिद्धान्तका माननेवाला था । इस संघके मुनि दिगम्बर मुनियोंके समान ही रहते थे किन्तु स्त्री-मुक्ति और केवलीका कवलाहार मानते थे । यह एक मध्यस्थ संघ मालूम होता है जो दिगम्बर श्वेताम्बरोंकी अच्छी अच्छी बातें स्वीकार करता था ।
काष्ठा और माथुर संघ – ये भी दिगम्बर संघ हैं । दिगम्बरोंके मूलसंघसे इनमें भेद यह है कि मूलसंघमें मुनिके लिये मयूरपिच्छका विधान है जब कि यह संघ बालोंकी पिच्छी रखता है । माथुर संघ काष्ठासंघकी शाखा है । इस संघ में किसी भी तरह की पिच्छी रखनेका विधान नहीं है । यह समयका दुर्भाग्य है कि जो धर्म अनेकान्त सरीखे समन्वयवादकी भित्तिपर खड़ा था वह इन छोटी छोटी बातोंका भी समन्वय न कर सका । काष्ठासंघको गोपुच्छक और माथुर संघको निः पिच्छक संघ भी कहते हैं । काष्ठासंघकी उत्पत्तिका समय दर्शनसारके अनुसार वि० सं० ७५३ है और माथुर संघका ९६३ ।
मूर्तिपूजक- अमूर्तिपूजक - जैनधर्ममें मूर्तिपूजा कबसे चली इसका इतिहास लुप्त है । फिर भी यह अर्वाचीन
भी नहीं है ।