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दिगम्बर-श्वेताम्बर
यबपि इन विषयोंकी सामान्य सामग्री दोनोंमें है तथा मौलिक तत्त्वोंमें कुछ भेद नहीं है, फिर भी अगर हम एक-दूसरेके ग्रन्थोंको आदरकी दृष्टिसे देखने लगे और अपने अपने गीत न गाते रहें तो हम अनेकान्त दृष्टिको प्राप्त करके पूर्ण जैनत्वको प्राप्त कर सकेंगे।
साम्प्रदायिकताका साहित्यके ऊपर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ता है । इस साम्प्रदायिकताने ही श्वेताम्बर-साहित्यमें जिनकल्पविच्छेद आदि विचारोंका प्रवेश कराया और इसीने दिगम्बर-साहित्यमें स्त्रीमुक्तिनिषेध आदिका विधान किया। _ दिगम्बरोंने नग्नत्वपर जोर देकर मुनिधर्मको कलुषित न होने देनेके लिये बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु उसका निर्वाह न हो पाया । श्वेताम्बरोंम यतियोंकी सृष्टि हुई तो इस सम्प्रदायमें भट्टारक गुरुओंकी सृष्टि हो गई । स्त्रीमुक्तिनिषेधकी बातोंने भी दिगम्बरक्की रक्षा न कर पायी । आज तो स्त्रीमुक्ति-निषेध आदि भी मतभेदके विषय बन गये हैं जब कि ये बातें तो दिगम्बरत्व और श्वेताम्बरत्व सम्बन्धी मतभेदके फल हैं । दिगम्बरत्वकी रक्षाके लिये स्त्रीमुक्तिका निषेध करना पड़ा, स्त्रीमुक्तिके निषेधके कारण बहुत-सा कथा-साहित्य भी परिवर्तित हो गया। सबसे बुरी बात तो यह हुई कि जिस जैनधर्मने स्त्रियोंको मनुष्योचित सभी अधिकार दिये थे वे इस छोटेसे मतभेदके कारण छिन गये और म० महावीरके धर्ममें भी वहीं बीमारी आ गई जिस बीमारीको दूर करनेके लिये म० महावीरने जैनधर्मका प्रचार किया था । परन्तु यह प्रसन्नताकी बात है कि बीमारीका निदान और चिकित्सा अज्ञात नहीं है। जिन लोगोंने इन सम्प्रदायोंकी नींव डाली उनने अपनी समझके अनुसार अच्छा ही