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जैनधर्म-मीमांसा
रताकी और अनुभवकी आवश्यकता थी वह जमालिमें नहीं थी तब जमालिको म० महावीर केवली कैसे मान लेते ?
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खैर ! इन सब कारणोंसे या प्रचार के बहानेसे जमालिने अपने साधु-साध्वियोंके साथ प्रबास किया । घूमते हुए श्रावस्तीके तन्दुक उद्यानके कोष्टक चैत्यमें ठहरे । वहाँ जमालि बीमार हुए। उस समय इन मुनियोंसे कहा कि घासकी शय्या बिछा दो । मुनि शय्या तैयार करने लगे । इतने में जमालिने फिर पूछा-क्या शय्या तैयार हो गई ? उस समय कुछ काम बाकी था परन्तु बोलचालके रिवाजके अनुसार मुनियोंने कह दिया कि ' हो गई ' । जमालि तुरन्त लेटनेको आये परन्तु कुछ काम बाकी था, इसलिये क्रुद्ध होकर बोले कि जो काम हो रहा है उसे ' हो गया है ' क्यों बोले । मुनियोंने कहा क्रियमाणको भी कृत कहा जाता है ऐसा महावीर - वचन है । जमालिको और भी क्रोध आ गया और उनने कहा कि यह ठीक नहीं है। बस इसीपर मतभेद हो गया । कुछ मुनि इसीसे चिढ़कर म० महावीर के पास लौट गये। ' क्रियमाणको कृत कहा जा सकता है ' और ' क्रियमाणको कृत नहीं कहा जा सकता ' इस प्रकार म० महावीर और जमालिके दो मत बन गये ।
इसमें संदेह नहीं कि जिस अवसरपर साधुओंने क्रियमाणको कृत कहा था उस अवसरपर वैसा नहीं कहना चाहिये था । उन्हें जानना चाहिये था कि बीमार आदमी शय्याके पास आकर खड़ा नहीं रह सकता। इसलिये काम पूरा होनेपर ही ' हो गया' कहना चाहिये था । किसी भी नय - वाक्यका प्रयोग करते समय परिस्थितिका ख्याल रखना चाहिये। दूसरी भूल जमालिकी है । अगर रिवाजके अनुसार मुनियोंने