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कैवस्व मौर धर्मप्रचार
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थे उस समय उनके पिता धनदेवका देहान्त हो गया । घनदेवकी मौसीके लड़के मौर्य थे। जब विजयादेवी विधवा हो गईं तो उनका पुनर्विवाह मौर्यके साथ कर दिया गया । इस विवाह से मौर्यपुत्र सरीखा पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ । हम देखते हैं कि सोमिल ब्राह्मणके यज्ञमें ये सभी विद्वान् उपस्थित थे जिनमें विधवा-पुत्र ये मौर्यपुत्र भी थे । इससे मालूम होता है कि विधवाविवाहसे उस समय कुलीनतामें बाधा नहीं समझी जाती थी । हिन्दुओंके तो बहुतसे ऋषि इसी तरह पैदा हुए हैं । कौटलीय अर्थशास्त्रमें जो विश्वाविवाहके कानून दिये गये हैं उनसे मालूम होता है कि उस समय चारों ही वर्णोंमें विधवाविवाहका ग्राम रिवाज़ था। । जैन शास्त्रोंमें इन सभी गणधरोंको महाकुलीन माना गया है ।
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दूसरी बात जो हमारा ध्यान आकर्षित करती है वह मौर्यपुत्रका संदेह है । शास्त्रों में तो लिखा है कि उस समय गाँव-गाँव में देवता लोग डेरा जमाये पड़े थे । यज्ञोंमें देवता आते थे, गाँवके लोगोंको तंग करनेके लिये देवता तैयार रहते थे, महावीरपर छोटे छोटे उपसर्ग करनेके लिये भी देवता आये थे, उनका सभामण्डप देवताओंने ही बनाया था, यहाँ तक कि वहाँ हजारों लाखों देवता बैठे थे । यज्ञमण्डपमें जब देवता न आये तब इन्द्रभूतिको बड़ा आश्चर्य हुआ था । अगर शास्त्रोंकी ये बातें ज्योंकी त्यों मान ली जायँ तो देवता लोग उस समय बरसाती मेंढकोंसे भी अधिक सुलभ हो जाते हैं । ऐसी अवस्थामें क्या मौर्यपुत्रको यह संदेह हो सकता था कि ' देवगति है कि नहीं'। यदि समवशरणमें देव और देवियोंका जमघट लगा या और अपापा नगरीका खाली मैदान यदि क्षणभरमें रत्ननिर्मित