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जैनधर्म-मीमांसा
कर लेना चाहिये । म० महावीरने जब जिनकल्प और स्थविरकल्प दोनों ही बताये हैं तब यह क्या बात है कि जिनकल्पपर ही इतना अधिक जोर दिया जाता है ? आज वह ज़माना कहाँ है कि जिनकल्पका पालन हो सके ? जिनकल्प तो म० महावीरके साथ ही गया । हमें तो स्पष्ट घोषणा कर देना चाहिये कि जिनकल्प तो 'व्युच्छिन्न' हो गया है । जिनकल्पके विना मोक्ष रुकता नहीं है और केवल दिगम्बर से ही जिनकल्पका पालन नहीं होता । "
इन विचारोंका फल यह हुआ कि उत्तरप्रान्तवालोंमें जो दिगम्बर वेषमें रहते थे उनने भी उस वेषका त्याग कर दिया और नरम नीतिका पोषक संगठित संघ बन गया । इस दलके नेता स्थूलभद्र थे ।
यहाँ यह सब बात कहना आवश्यक है कि नरम नीतिका पोषक यह दल न तो भ्रष्ट था न शिथिलाचारी था । उप्रदल और नरमदलके दृष्टिबिन्दुमें ही अन्तर था । उग्रदलवाले यह सोचते थे कि अगर 'हम महावीरके जीवनका पूरा अनुकरण न करेंगे तो धीरे धीरे इतना शिथिलाचार बढ़ जायगा कि कुछ समय बाद मुनि और श्रावकोंमें कुछ अन्तर ही न रहेगा । जब हम बाह्य नियमोंका कठोरतासे पालन करेंगे तब थोड़ी-बहुत आत्मशुद्धि भी रह जायगी । अगर हम बाहरसे बिलकुल ढीले हो गये तो भीतरसे कुछ भी न रहेंगे । ' इसके विपरीत नरमदलवाले यह सोचते थे कि ' बाहिरी बातोंपर अधिक जोर देनेसे भीतरी बातोंको लोग भूलने लगते हैं-वे लोक-सेवाके कामके नहीं रहते। साथ ही ज्ञानोपार्जनपर भी उपेक्षा करने लगते हैं । उग्रनीति से धर्मप्रचार और धर्म-प्रभावनामें भी