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जैनधर्म-मीमांसा
अधिकांश मुनि भी दिगम्बर वेशमें ही रहते थे परन्तु सवस्त्रवेशका इकदम निषेध नहीं हो गया था। थोड़े बहुत मुनि वस्त्र भी धारण करते थे। आर्यिकाएँ तो अवश्य ही वस्त्र धारण करती थीं और मोक्षका मार्ग तो दोनोंको समान रूपसे खुला था, इसलिये वस्त्रत्यागपर बहुत अधिक जोर नहीं दिया जा सकता था । फिर भी उनके शिष्य दिगम्बरत्वका अनुकरण जरूर करते थे और म० महावीरके पीछे तो प्रायः सभी दिगम्बरवेशी हो गये होंगे । परन्तु मुनियोंमें एक दल ऐसा भी था जो दिगम्बरत्वको अच्छा समझता हुआ भी उसपर इतना जोर देना उचित नहीं समझता था। एक दल म० महावीरके बाह्य तपका भी पूरा अनुकरण करना चाहता था और दूसरा उसको उचित समझता हुआ भी अनिवार्य नहीं मानता था । परन्तु म० महावीरकी दृष्टिमें अन्तर न था । वे दोनोंको समान समझते थे । अर्थात् सबको मुनि मानते थे। मुनियोंके दस भेदोंमें कोई विशेष तपस्वी होते हैं, कोई अध्ययनप्रिय होते हैं और कोई साधारण होते हैं परन्तु मुनि सभी कहलाते हैं। इसी तरह उस समय भी मुनि सभी कहलाते थे। __म० महावीर के ६२ वर्ष पीछे तक यह मतभेद रुचिभेदके ही रूपमें रहा । इन्द्रभूति गौतम, सुधर्मास्वामी और जम्बूस्वामी तक संघभेदका कोई चिह्न नज़र नहीं आता । बादमें संघभेद भले ही न हुआ हो परन्तु एक ही संघके भीतर दलबन्दी अवश्य मालूम होती है। क्योंकि जंबूस्वामीके बाद दिगम्बर और श्वेताम्बरोंकी आचार्यपरम्परा जुदी पड़ जाती है । दिगम्बरोंके कथनानुसार जम्बूस्वामीके पीछे जो पाँच श्रुतकेवली. ( पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता ) हुए