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सहजातिशय
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लोकोत्तर पुरुष टट्टी जाएँ या पेशाब करें यह कल्पना भक्तोंको पसन्द नहीं आई। उधर अङ्गपूर्वो और अङ्गाबाह्योंमें ऐसी घटनाओंका उल्लेख-अनावश्यक होनेसे-न मिला। फल यह हुआ कि यह अतिशय मान लिया गया। श्वेताम्बरोंको भी भक्तिके कारण इस अतिशयकी आवश्यकता तो मालूम हुई, परन्तु उसमें उन्होंने जरा सुधार कर लिया । इसलिये उनने यह कहा कि तीर्थंकरका नीहार दिखलाई नहीं देता; परन्तु यह अतिशय भी भक्तिकल्प्यके सिवाय कुछ नहीं है।
आहारका दिखलाई न देना भी सहजातिशय नहीं कहा जा सकता । क्योंकि दीक्षाके बाद म० महावीरको जिन जिन लोगोंने आहार दिया है और पाणिपात्रमें दिया है, क्या उन्हें दीखता नहीं होगा कि वे आहार कर रहे हैं ? हाँ, केवलज्ञान होनेके बाद यह बात कही जा सकती है । दिगम्बर सम्प्रदायमें ऐसा अतिशय केवलज्ञानका ही माना है। परन्तु उनके मतानुसार अरहंत आहार ही नहीं करते । नीहारके विषयमें जो बात मैं ऊपर लिख चुका हूँ वही यहाँ आहारके विषयमें भी कही जा सकती है। दूसरी बात यह है कि जब अरहन्तको बिलकुल देव साबित करनेकी आवश्यकता हुई तब उनके आहार-नीहार न माननेकी मान्यता भी प्रचलित हुई। भक्त हृदय जिसे देवोंका देव मानता है उसके विषयमें वह ऐसी कल्पना करे इसमें आश्चर्य नहीं है । जब सामान्य देवोंके आहार-नीहार नहीं माना जाता तब देवोंके देवके कैसे होगा इस भोली मान्यताके अनुसार दिगम्बरोंने आहार-नाहार नहीं माना और श्वेताम्बरोंने उसे चर्मचक्षुसे अदृश्य मानकर सन्तोष किया । परन्तु ये दोनों बातें भक्तिकल्प्य हैं । हाँ, अदृश्य माननेके पक्षमें इतना कहा जा सकता है