________________
१७२
जैनधर्म-मीमांसा
नेमें अपमान समझते थे, सारा काम संस्कृत में होता था उस युग में म० महावीर सरखे असाधारण विद्वानका प्राकृत भाषा में व्याख्यान देना अतिशय ही था । सर्वसाधारणक हृदयपर इस बातका जितना प्रभाव पड़ा होगा उतना अन्य अनेक अतिशयोंका न पड़ा होगा । आप्तके जो तीन विशेषण हैं उनमेंसे तीसरे विशेषण (हितोपदेशकत्व ) के साथ इसका बहुत सम्बन्ध है इसलिये इसे मुख्य अतियोंमें मानना चाहिये ।
दूसरा अतिशय 'पारस्परिक मित्रता' का है । इसका अगर साधारण अर्थ किया जाय तो वह देवकृत अतिशय नहीं कहा जा सकता । इसलिये दिगम्बर लेखकोंने इसका अर्थ किया है— सब लोग मागधी बोलें । उपर्युक्त विवेचनसे मालूम होता है कि म० महावीरने अर्धमागधीका अपने विहार-क्षेत्रमें खूब प्रचार कर दिया था । इससे यह बात मालूम होती है कि सर्वसाधारणकी एक भाषा बनानेके लिये उने प्रयत्न किया था और उसमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली थी। एक-दूसरेकी भाषा समझनेसे मित्रता बढ़ती है इसलिये इस अतिशयका दूसरा नाम ' पारस्परिक मित्रता' हो गया ।
तीसरा, छट्ठा, दसवाँ और ग्यारहवाँ अतिशय कादाचित्क प्राकृतिक घटनाओं का भक्तियुक्त वर्णन है । आज भी हम देखते हैं कि जब हमारे यहाँ कोई महापुरुष आता है तो हम प्राकृतिक घटनाओंको उसके प्रभावका फल बतलाने लगते हैं । अगर पानी बरसने लगता है तो कहते हैं कि गर्मी ज्यादः पड़ती थी इसलिये पानी बरसने लगा । अगर रुक जाता है तो कहते हैं कि पानी बरसनेसे लोग भींगते थे इसलिये रुक गया; यदि बादल आ जाते हैं तो कहते हैं