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जैनधर्म-मीमांसा
द्वादशांगका विकृत और अवशिष्टांश जो श्वेताम्बरोंमें प्रचलित है उसकी भाषा अर्धमागधी कही जाती है । कोई कोई उसे आर्ष प्राकृत कहते हैं और कोई उसे महाराष्ट्री प्राकृत कहते हैं। वास्तवमें उस प्राकृतपर महाराष्ट्री प्राकृतका इतना अधिक प्रभाव पड़ा है कि उसे महाराष्ट्री प्राकृत कहा जा सकता है । इसका कारण यह मालूम होता है कि एक दिन समस्त भारतवर्षमें महाराष्ट्री प्राकृतका बोलबाला था। परन्तु वह शुद्ध महाराष्ट्री नहीं है, उसमें मागधीकी भी विशेषता पाई जाती है । इसके अतिरिक्त अनेक प्रयोग ऐसे हैं जो सीधे संस्कृतसे आये हैं और जिनका प्राकृतमें प्रयोग नहीं होता। परन्तु वे मेरे खयालसे पालीके प्रयोग हैं । पाली प्रयोगोंसे मिलान करनेपर यह बात बहुत-कुछ ठीक बैठती है।
दिगम्बर शास्त्रोंकी प्राकृत प्रायः शौरसेनी है। यद्यपि मूलाचार वगैरहमें महाराष्ट्री पद्य भी मिलते हैं परन्तु इसका कारण यह है कि ऐसा प्राचीन साहित्य श्वेताम्बर-दिगम्बरोंका मिलता-जुलता है । ऐसी सैकड़ों गाथाएँ हैं जो श्वेताम्बर-दिगम्बर ग्रंथोंमें एक-सी हैं। ये सब प्राचीन गाथाएँ हैं जिन्हें दोनों सम्प्रदायोंने अपना लिया है। ऐसा मालूम होता है कि म० महावीरकी भाषा थी तो मागधी, परन्तु उसमें महाराष्ट्री, पाली आदिका खूब मिश्रण हुआ था। पीछेसे वह साहित्य उच्चारणभेदसे कुछ परिवर्तित होता रहा । ऊपर जो मैंने छः उद्धरण दिये हैं उनमेंसे प्रथम द्वितीय और चतुर्थसे यही बात साबित होती है। जिस प्रकार आज हिन्दी और उर्दूको मिलाकर हिन्दुस्थानीके एक नये रूपपर जोर दिया जाता है जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों समझ सकें उसी प्रकार उस समय सर्वभाषात्मक