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मूलातिशय
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१-अपायापगमातिशय-संसारके प्राणी अज्ञानादिसे अपना नाश ( अपाय ) कर रहे हैं उस अपायको म० महावीरने दूर किया अर्थात् पतनके मार्गसे स्वयं भी बचे और दूसरोंको भी बचाया । तीर्थंकरका सबसे बड़ा और सत्य अतिशय हो सकता है तो यही हो सकता है।
२–ज्ञानातिशय-आत्माको स्वतंत्र और सुखी बनानेका पूर्ण सत्य ज्ञान उनको था।
३-पूजातिशय-बड़े बड़े आदमी भी उनकी पूजा करते थे।
४-वचनातिशय-उनकी व्याख्यानशैली बहुत रोचक थी और उनका उपदेश सबको हितकारी था। मालूम होता है कि पुराने समयमें वचनके ३५ गुण माने जाते थे, और जिसके वचनकी प्रशंसा करना पड़ती थी उसके पीछे ये गुण विशेषण रूपमें कहे जाते थे । श्वेताम्बर साहित्यमें नगर, देश, राजा, रानी, उपवन, चैत्य, शरीर और उसके अंगोपांग आदि सबके वर्णन मिलते हैं। जहाँ किसीका उल्लेख हुआ कि उक्त वर्णन उसके साथ लगा दिया गया। इसी तरह वचनातिशयके साथ हुआ है अन्यथा सत्यता और हितकरताकी दृष्टिसे जो वचन सर्वोत्तम है वह कलाकी दृष्टिसे भी सर्वोत्तम होना चाहिये यह नियम नहीं है । वचनातिशय हितकरता है, कलापूर्णतामें नहीं । फिर भी जैन शास्त्रोंमें अरहंत-वचन के ३५ गुण माने गये हैं:
१-सब जगह समझा जा सके। २-योजन तक (बहुत दूर तक) सुनाई दे सके । ३–प्रौढ ४-मेघके समान गंभीर । ५-स्पष्ट शब्दवाला ६--संतोषप्रद । ७-हर-एक मनुष्य ऐसा समझे कि
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