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जैनधर्म-मीमांसा
(१४) उनके विहारमें आगे आगे धर्मचक्रका निशान और उसके पीछे अष्ट-मंगल-द्रव्य लेकर लोग चलते थे । यह सब भक्तोंकी भक्तिका फल था।
(१५) उनके साथ एक जनसमूह प्रायः रहा ही करता था।
इन पन्द्रह कलमोंमें अतिशयोंका निष्कर्ष दिया गया है । इनके पढ़नेसे म० महावीरका बाहिरी चित्र हमारी आँखोंके सामने घूमने लगता है । परन्तु यह याद रखना चाहिये कि ये अतिशय वास्तविक अतिशय नहीं हैं । वास्तविक अतिशय तो चार मूलातिशय हैं जो पहिले बताए जा चुके हैं अथवा पूर्ण सत्य-ज्ञान, पूर्ण वीतरागता, और पूर्ण हितोपदेशता ही उनके सच्चे अतिशय हैं।
महावीर-निर्वाण। महावीर-जीवनके ऊपर इस प्रकार निःपक्ष वैज्ञानिक दृष्टि डालनेसे हम म० महावीरके वास्तविक महत्त्वको समझ लेते हैं तथा इससे जैनधर्मके वास्तविक रूपको समझनेमें, विवादग्रस्त विषयोंके निर्णय करनेमें
और साम्प्रदायिकताको नष्ट करनेमें बड़ी मदद मिलती है। __ मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि म० महावीरके समयमें जैनधर्मका जो रूप था यदि वही रूप फिर खोज लिया जाय, करीब ढाई हजार वर्षों में जो विकार जम गया है वह हटा दिया जाय, तो जैनधर्म विज्ञानके आगे टिकने लायक और समाज-सुधारकी सभी समस्याओंको हल करनेवाला बन सकता है । फिर भी अगर उसमें कुछ त्रुटि मालूम हो तो हमें उसके पूर्ण करनेका अधिकार है। अन्तरंग रूपमें तो परिवर्तन होना नहीं है, परिवर्तन होना है बाह्यरूपमें; सो बाह्यरूपमें परिवर्तन होनेसे जैनधर्मकी कोई भी क्षति