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जैनधर्म-मीमांसा
चीर पधारते थे उस नगरका राजा नगरमें डौंडी ( डिंडिम ) पिटवा कर या और किसी प्रकारसे नगरनिवासियोंको इस बात की सूचना देता था तथा दर्शनोंके लिये अनुरोध भी करता था। __ श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो देवकृत अतिशय हैं उनमें प्रातिहार्योके नाम भी आये हैं । दोनोंमें अंतर यह मालूम होता है कि समवशरणकी रचना न होनेपर भी जो साधारण चिन्हके तौरपर रहते थे वे प्रातिहार्य कहलाते थे और जब समवशरणकी रचना होती थी और जब वे ही चिह्न कुल अधिक मात्रा में होते थे तो अतिशय कहलाने लगते थे । जैसे अतिशयोंमें चौवीस चमर हैं जब कि प्रातिहार्योंमें आठ । प्रातिहार्यमें साधारण अशोक वृक्ष है परन्तु अतिशयोंमें घंटा, पताका आदि अष्ट मङ्गल द्रव्योंसे शोभित है.। अतिशयोंका जो विवेचन हो चुका है उससे श्वेताम्बराभिमत देवकृत अतिशयोंका विवेचन हो जाता है। जिस अतिशयके विषयमें कुछ विशेष रूपमें कहना है वह यहाँ कहा जाता है । ___दशवें अतिशयसे मालूम होता है कि म० महावीरके व्याख्यानके स्थानको किसी श्रीमन्तने या राजाने तीन तरहकी कपड़ेकी दीवालोंसे घेरा होगा। पहिलीमें अनेक तरहके बेल-बूटे होंगे, दूसरीका रंग पीला होगा और तीसरी बिलकुल सफेद होगी। ___ चौदहवें अतिशयसे मालूम होता है कि उनके स्वागतमें नगर निवासियोंने वृक्षोंमें भी बन्दनवार आदि लटकाई होंगी। पीछेसे कवियोंने बन्दनवार लटकतीं देखकर कल्पना की होगी कि मानो वृक्ष झुक कर प्रणाम करते हैं।
आकाशमें दुंदुभि बजनेका अर्थ यह है कि समवशरणके द्वार पर ऊँचे स्थानपर बाजे बजते थे। आजकल भी हाथी-द्वारके ऊपर