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कर्मक्षयजातिशय
नहीं है जिससे हम निःपक्ष विद्वान्के सामने केवलीके कवलाहारका निषेध सिद्ध कर सकें । केवलीके आहारके विषयमें श्वेताम्बर लोग भी अतिशयके इच्छुक हैं इसीलिये उनने उसे अदृश्य माना है। अगर केवली कवलाहार न करते तो इस अतिशयको माननेमें श्वेताम्बर कभी आनाकानी न करते । वे तो आहारको अदृश्य माननेके झगड़ेसे बच जाते । एक बात और है । दिगम्बर लोग सिर्फ कवलाहारका निषेध करते हैं, वे आहार-मात्रका निषेध नहीं करते। औदारिक शरीरके लिये आहारकी आवश्यकता तो उनने भी स्वीकार की है । इसलिये यहाँ विचार उठता है कि वह कौनसा आहार है और किस द्वारसे किया जाता है। जिस शरीरके लिये जिस आहारकी आवश्यकता है और वह आहार जिस द्वारसे मिलता है उसमें इकदम इतना विचित्र परिवर्तन कैसे हो सकता है ? नई वर्गणाएँ भले ही शुभ और सूक्ष्म हों परन्तु पुरानी वर्गणाएँ तो जीवनके अन्त तक बदली नहीं जा सकतीं । इस विषयपर जितना ही विचार किया जायगा उतनी ही उसकी अवैज्ञानिकता सिद्ध होती जायगी। इसलिये केवली भोजन ही नहीं करते उनका भोजन करना अदृश्य है, ये अतिशय भक्तिकल्प्य ही हैं । - हाँ, अगर भोजन न करनेकी कल्पना दोनों सम्प्रदायोंमें होती तो इतना अनुमान किया जा सकता था कि शायद उनने कवलाहार छोड़ दिया हो और सिर्फ दुग्धपानाचाहार रक्खा हो ? क्योंकि यदि सर्वथा भोजनका त्याग अभीष्ट होता तो कवलाहार-त्यागकी जगह चतुराहारत्याग बताया जाता, क्योंकि पूर्ण भोजन-त्यागके लिये चतुराहारत्याग शब्दका उपयोग अधिक उचित है। कुछ भी हो, यह बात निश्चित है कि दोनों ही सम्प्रदायोंमें यह अतिशय भक्तिकल्प्य ही है।
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