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जैनधर्म-मीमांसा
किये हैं । सर्वज्ञताका यह अर्थ नहीं है कि वह एक साथ सब वस्तुओं पर नज़र रक्खे । अगर ऐसी बात होती तो भी भोजनमें कोई बाधा नहीं थी, क्योंकि जिसके रति, अरति, जुगुप्सा ( घृणा ग्लानि ) आदि भाव ही नहीं हैं उसे इन बातोंके देखनेसे अन्तराय नहीं आता । दूसरी बात यह कही जाती है कि अगर अरहन्तके आहार माना जायगा तो भूखका कष्ट भी मानना पड़ेगा जिससे अनन्त सुखमें बाधा आ जायगी ! इसके उत्तर में सीधी बात यही कही जा सकती है कि अरहंतमें अनन्तसुख साबित करने के लिये एक असम्भव कल्पना नहीं की जा सकती । अगर सुखमें बाधा आती है तो हमें स्वीकार कर लेना चाहिये कि अरहंतका सुख, संसारके समस्त प्राणियोंसे अधिक होने पर भी वह पूर्ण नहीं है। यदि असातावेदनीयका उदय सुखमें बाधा डाल सकता है तो यह क्या बात है कि हम अरहंतके असातावेदनीयका उदय तो मानें, क्षुधा परीषह भी स्वीकार करें, परन्तु सुखमें न्यूनता न स्वीकार करें। अगर मोहनीय कर्म न होनेसे असातावेदनीयका उदय और क्षुधा परीषह दुःख नहीं दे सकती तो क्षुधा होनेपर अनन्त सुखमें बाधा पहुँचती है, यह मानना अनुचित है । अनन्त सुखमें बाधा पहुँचे या न पहुँचे - प्राकृतिक नियमों को इसकी पर्वाह नहीं है— परन्तु यह बात निश्चित है कि अरहंतको भूख लगती है और इस बातको दिगम्बर सम्प्रदाय भी स्वीकार करता है । दिगम्बर सम्प्रदाय जब अरहंतके असातावेदनीय और उसका फल क्षुधा परिषह स्वीकार करता है तब यह तो सिद्ध हुआ कि अरहंतको भूख है। भूखा रहकर कोई मनुष्य वर्षो जीवित रहे यह बात असम्भव है । आज हमारे पास ऐसी कोई भी युक्ति
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