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कर्मक्षयजातिशय
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१-व्याख्यानके समय तीर्थंकर चारों तरफ़ देखते हैं जिससे चारों दिशाओंके दर्शकोंको उनका मुँह दिखलाई दे ।
२-व्याख्यान मंडपमें उनके सामने तथा आजूबाजू बड़े बड़े दर्पण लगाये जाते थे जिसमें सामने न बैठनेवालोंको भी उनका मुख (दर्पणमें ) दिखलाई देता था । ____३-उनके भक्त श्रीमान् लोग उनकी तीन मूर्तियाँ या तीन चित्रपट अन्य तीन दिशाओंमें स्थापित करते थे।
सर्वविद्याप्रभुत्व नामका अतिशय ठीक है। अगर केवलज्ञानका अर्थ त्रिकालकी समस्त पर्यायोंका युगपत्प्रत्यक्ष किया जाय तो यह अतिशय बिलकुल निकम्मा होजाता है। किसी करोड़पति आदर्मासे यह कहना कि इसके पास एक पैसा है, उसका अपमान करना है। इसी प्रकार केवलज्ञानके वर्तमान लक्षणके आगे सर्वविद्याप्रभुत्वकी बात है। सर्वविद्याप्रभुत्व विशेषणसे मालूम होता है कि सर्वज्ञत्वका अर्थ सर्वविद्यासर्वज्ञत्व था । वास्तवमें यही महान् अतिशय है।
प्रतिबिम्बरहितता, पलकोंकी स्थिरता, नखकेशोंका न बढ़ना, ये तीनों अतिशय तो अरहंतमें देवोंकी बाह्य विशेषताएँ बतलानेके लिये कल्पित किये गये हैं क्योंकि अरहंत तो देवोंके देव हैं। जैनधर्ममें ईश्वरका अलग अस्तित्व नहीं है। उनके लिये तो तीर्थंकर ही ईश्वर हैं, देव हैं, महात्मा हैं, परमात्मा हैं। उनमें अगर सामान्य देवोंकी विशेषता न हो तो भक्तोंको अवश्य ही असन्तोष रहे । साथ ही दूसरे लोगोंके सामने अरहंतदेवको देव कहनेमें उन्हें सोच हो। साधारण श्रेणीके लोगोंमें ऐसी चर्चा होती होगी कि तुम्हारे देव, कैसे देव हैं ! देवोंके शरीरकी तो छाया नहीं पड़ती, पलके