________________
सहजातिशय
१५१
छडे अतिशय ( सुलक्षणता ) को श्वेताम्बरोंने इसलिये नहीं माना कि ज्योतिषके लक्षण (चिन्ह ) सभीके शरीरमें थोड़े-बहुत पाये जाते हैं इसलिये वह अतिशयरूपमें नहीं गिना जा सकता । परन्तु ज्योतिषके उस युगमें ज्योतिष-सम्बन्धी विशेषता बतलाना ज़रूरी समझकर दिगम्बरोंने उसे अतिशय कहा है। परन्तु वास्तवमें इस अतिशयमें कुछ महत्त्व नहीं है। ___ सातवें अनन्तबलको दिगम्बरोंने जन्मकृत अतिशय माना, यह ज़रा आश्चर्यकी बात है। क्योंकि अरहंतके ४६ गुणोंमें अनन्तबलकी गणना अनन्तचतुष्टयमें की गई है । एक ही गुणको दो जगह गिनाना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है तथा जन्मसे ही किसी बालकमें अनन्तबल हो यह भक्त हृदयकी ही सम्पत्ति हो सकती है। इसलिये इसे जन्मका अतिशय नहीं माना जा सकता ।
प्रियहितवादित्व भी जन्मका अतिशय नहीं हो सकता क्योंकि पैदा होते समय बच्चा बोलता नहीं है । बच्चोंका रोना, हँसना, तुतलाना आदि सभी कुछ प्यारा लगता है इसलिये यह अतिशय माना जाय तो यह संभव तो हो सकता है, परन्तु इसमें कोई अतिशयता नहीं रह जाती । इस अतिशयको तो केवलज्ञानका ही अतिशय कहा जा सकता है, क्योंकि केवलज्ञानके होनेपर ही वे संसारको प्रिय और हितकारी उपदेश देते हैं। __ 'समचतस्रसंस्थान' शरीरका एक सुडौल आकार है। यद्यपि यह हरएक आदमीके तो नहीं होता फिर भी बहुतसे स्त्री-पुरुषोंके होता है । इसे किसी तरह अतिशय तो कह सकते हैं, परन्तु यह तीर्थङ्करके अतिशयोंमें गिनाने लायक नहीं है । यही बात वज्रर्षभनाराच