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जैनधर्म-मीमांसा
संहननके विषयमें है । यह शरीरकी मजबूतीका उत्कृष्ट भेद है। यह भी बहुससे मनुष्य-तिर्यश्चोंके पाया जाता है।
बोनम्बरोंने जो तीसरा अतिशय माना है उसे दिगम्बर नहीं मानते। उनके मतसे भगवान्के नीहार नहीं होता है । 'मलरहित शरीर' नामक पाँचवें अतिशयका उनने यही अर्थ किया है। यह अतिशय अत्युत्कट भक्ति और लोगोंके भोलेपनका परिणाम है। बाल्यावस्थामें-जब कि मैं पद्मपुराणका खूब स्वाध्याय करता था और संसारका सारा लौकिक और पारलौकिक ज्ञान उसीमें समझता थामेरी यह मान्यता थी कि संतान उत्पन्न करनेके लिये संभोग करना अनिवार्य नहीं है । मेरी इस मान्यताके दो कारण थे। एक तो यह कि मैं राम और सीताजीको इतना पवित्र समझता था कि मैं यह माननेको कदापि तैयार न था कि दोनों संभोग करते होंगे; फिर भी पद्मपुराणमें यह लिखा था कि सीताके दो पुत्र हुए थे । इसलिये मेरी यह मान्यता हो गई थी कि विना संभोगके भी संतान हो सकती है। दूसरा कारण यह था कि पद्मपुराणमें राम-सीता-संभोगका कहीं स्पष्ट शब्दोंमें उल्लेख नहीं था । इसलिये भी मेरी यह मान्यता थी। एक मित्रने, जिसे मैं अपनी अपेक्षा मूर्ख और संसारी समझता. था, मुझे मेरी गलती बतलाई तो मैं उससे शास्त्रार्थ करने लगा अर्थात् लड़ने लगा । करीब चौदह वर्षकी उमर तक मेरी यही मान्यता थी। मेरे गाँवमें एक युवक भाईजी तो ऐसे थे जो विवाह और गौनाके बाद तक इसी मान्यतापर दृढ़ थे। मेरा यह भोलापन अनेक अतिशयोंके मूलकी खोजमें उपमान प्रमाणका काम कर सकता है। अधिक भक्तिका ऐसा ही परिणाम होता है । अरहन्त सरीखे