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जैनधर्म-मीमांसा
सकता था । श्रावकों की अनुमतिके विरुद्ध कोई साधु किसीको दीक्षित नहीं कर सकता था । अगर किसी साधुसे किसी श्रावकका अपराध होता था तो उस साधुको श्रावकसे माफी माँगनी पड़ती थी । एक वार म० महावीरके मुख्य शिष्य इन्द्रभूति गौतमको आनन्द श्रावक से माफी मांगनी पड़ी थी । और माफी मांगनेके लिये म० महावीरने गौतमको आनन्द के घरपर भेजा था । मतलब यह कि म० महावीरका श्रावक संघ साधुओंकी दृष्टिमें मिट्टीका पुतला नहीं था। उसका स्थान साधु- संघ के समान ही महत्त्वपूर्ण था । साधु - महाव्रती होते हैं इसलिये श्रावक उनका सन्मान अवश्य करते थे किन्तु व्यवस्था और न्यायके विषयमें दोनोंका मूल्य बराबर था । श्रावक संस्था के विरुद्ध होकरके किसी साधुको कुछ भी करनेका अधिकार न था ।
श्रावक संघका यह स्थान पीछे भी रहा है। श्रावकोंने साधुओं को, चरित्रहीन होनेपर, पदभ्रष्ट किया है, आचार्योंको पदसे उतारा है, दुराचारियोंका वेष तक छीन लिया है ! — ये घटनाएँ शुरू से लेकर आजतक होती रही हैं। सैकड़ों वर्षोंतक साधुओंके विना श्रावक संघने अपने धार्मिक जीवनको सुरक्षित रक्खा है ।
महावीरने साध्वी रूप में ही स्त्रियोंके व्यक्तित्त्वका विकास नहीं किया, किन्तु श्राविकारूपमें भी किया । साध्वियाँ कौटुम्बिक बंधनसे 1 छूट जाती हैं इसलिये उनके व्यक्तित्वका मूल्य होना उतना कठिन नहीं था जितना कि श्राविकाओंका था । आज इस सुधरे जमाने में भी स्त्रियोंका प्रतिनिधित्व पुरुष ही कर लेते हैं । स्त्रियाँ अपना सुखदुःख अपने मुखसे कहें इससे अनेक धर्मध्वजियोंको अपना सख्त
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