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चतुर्विध संघ
न होने पाये । फल यह हुआ कि अनेक आक्रमण आनेपर भी साधुसंस्था टिकी रही । इधर श्रावकोंके ऊपर साधुओंकी देखरेख रहने से श्रावक संघ भी टिका रहा । इस तरह एकपर एक ग्यारहकी तरह इनका बल कई गुणा हो गया ।
म० महावीरके समयमें चौदह हज़ार (१४,००० ) मुनि थे, छत्तीस हज़ार (३६,०००) आर्यिकाएँ थीं, एक लाख उनहत्तर हज़ार ( १,६९,००० ) श्रावक थे और तीन लाख अट्ठारह हजार ( ३,१८,००० ) श्राविकाएँ थीं । मुनियोंका नेतृत्व गणधरोंके हाथमें था, आर्थिकाओंका नेतृत्व चन्दना, श्रावकोंका नेतृत्व शंख और शतक, तथा श्राविकाओंका नेतृत्व सुलसा और रेवतीके हाथमें था । श्रावक और श्राविकाओंकी यह गणना भी इस बातको साबित करती है कि उस समय श्रावक और श्राविकाओंपर जरा भी उपेक्षा नहीं रक्खी जाती थी । इतना ही नहीं, जब किसी श्रावकमें म० महावीर कोई अच्छी बात — कर्तव्यतत्परता, दृढ़ता आदि — देखते थे तो सर्व संघके सामने उसकी प्रशंसा करते थे और मुनियोंसे भी उस श्रावकका अनुकरण करने की बात कहते थे । इससे मालूम होता है कि म० महावीरने श्रावक संघको कैसा महत्त्व दिया था और कैसा सुव्यवस्थित बनाया था। चतुर्विध संघके इस वर्णन से म० महावीरके प्रबन्धकौशलपर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता ।
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साधुसंघ जैसे अपनी मर्यादाके भीतर स्वतन्त्र था उसी तरह श्रावक संघ अपनी मर्यादाके भीतर स्वतन्त्र था । किन्तु जिन कार्योंका
असर संघके बाहर होता था अथवा संघकी मर्यादाका जिनसे भंग होता था उनके विषयमें एक संघ दूसरे संघके कार्यमें हस्तक्षेप कर
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