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जैनधर्म-मीमांसा
मनको परमाणु बराबर मानकर उसे सर्व शरीर में चलता-फिरता मानते हैं। एक कट्टर साम्प्रदायिक मनुष्यके लिये इस विषयमें कुछ भी विचारनेकी या पूछनेकी बात नहीं हो सकती परन्तु निःपक्ष और समर्थ विद्वानोंके लिये तो आज भी यह ज़रा-सी बात जीवन-भर विचारनेके लिये काफी है । इससे हम समझ जायँगे कि गौतमादि विद्वानोंके और केशीजीके प्रश्न कितने महत्त्वपूर्ण थे, और जितने महत्त्वपूर्ण थे उससे भी अधिक उनके लिये आवश्यक थे । साधारण दृष्टि मनुष्यों को जिस प्रश्नका कुछ महत्त्व नहीं मालूम होता या जिसमें वे अपने लायक ज्ञातव्य विषय नहीं समझते; बड़े बड़े विद्वानोंके लिये वे प्रश्न बड़े महत्त्वके होते हैं और उनका समाधान उनके जीवनको परिवर्तित कर देता है। हेतुके सच्चे लक्षणने एक समर्थ दार्शनिक ( विद्यानन्द ) को जैन बना दिया— यद्यपि जैन विद्यार्थीको यह कोई दुर्लभ ज्ञान नहीं है । यही कारण है कि जब म० महावीरने गौतमादि विद्वानोंके संदेहों को दूर कर दिया तो वे तुरन्त उनके शिष्य हो गये और जैनधर्मके प्रचार में लग गये ।
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( ४ ) बहुतसे प्रश्न निर्णयकी दृष्टिसे महत्त्व के नहीं होते परन्तु व्यवहारमें लानेकी दृष्टिसे महत्त्व के होते हैं । जैसे कोई पूछे कि ' क्रोधको कैसे जीतें ' तो उत्तर होगा ' क्षमासे' । उत्तर बिलकुल ठीक है, एक साधारण विद्यार्थी भी सौमेंसे सौ नम्बर प्राप्त कर सकता है, परन्तु जब इसे कार्यरूपमें परिणत करनेका प्रश्न आता है तब लाखमें निन्यानवे हज़ार नौ सौ निन्यानवे मनुष्य फेल हो जाते हैं और इन फेल होनेवालोंमें बड़े बड़े विद्वानोंकी और मुनियोंकी संख्या कम नहीं होती । इसलिये जब हम किसीको इस विषय में पास