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सुखी बननेकी कला
सुखी बननेकी कला इस नीतिको अगर हम पूर्णरूपसे काममें ला सकें, तो बहुतसे दुःखोंका अन्त आ सकता है; परन्तु पूर्णरूपसे इस नीतिका कार्यान्वित होना अशक्य है तथा अगर इस विषयमें हमें सफलता मिल भी जाय तो भी अन्य प्राकृतिक दुःख तो बने ही रहेंगे । इन सब दुःखोंको हम थोड़ा बहुत कम कर सकेंगे, परन्तु बहु भाग बचा ही रहेगा। इसलिये हमें सुखी बननेकी कला सीखना चाहिये । अनेक मनुष्य ऐसे देखे जाते हैं कि जिनके पास अन्य मनुष्योंकी अपेक्षा सुख-सामग्री अधिक होती है; फिर भी ईर्ष्या असंतोष आदिके कारण वे दुःखी रहते हैं और अनेक मनुष्य ज़रा-सी विपत्तिमें घबरा जाते हैं, रोते हैं, जब कि अनेक महापुरुष हँसते हँसते मरते हैं । इससे यह बात सिद्ध होती है कि जो लोग सुखी रहनेकी कला जानते हैं, वे हर हालतमें सुखी रहते हैं और जो इस कलाको नहीं जानते, वे हर हालतमें दुखी रहते हैं । धर्म हमें इसी कलाका शिक्षण देता है । इस शिक्षणकी कुछ बातें ये हैं
जिस प्रकार हम किसी मकानमें भाड़ेसे रहते हों और वहाँपर हमें कोई विशेष कष्ट दे, हमारा अपमान करे, हमारी सम्पत्तिका अपहरण करे, तो हम उस मकानको छोड़ देते हैं, हम उस मकानकी पर्वाह नहीं करते। इसी प्रकार अगर हम शरीरकी भी पर्वाह न करें, शारीरिक जीवनसे आत्म-जीवनको महान् समझें, शरीरके लिये आत्माका नहीं किन्तु आत्माके लिये शरीरका बलिदान करना सीखें, मृत्युको गृहपरिवर्तन या वस्त्रपरिवर्तनके समान समझें, तो दुःखपूर्ण घटनाएँ हमें दुःखी न कर सकेंगी या नाममात्रको दुखी कर सकेंगी।