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केशी-गौतम-संवाद
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रचनाएँ हैं तब इनमें ऋषभदेवका उल्लेख मिलना सिर्फ इसी बातको सिद्ध करता है कि इनके रचना-समयमें अर्थात् करीब डेढ़ हजार वर्ष पहले ऋषभदेवकी भी मान्यता थी। इससे जैनधर्मकी प्राचीनतापर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता । वेदोंमें — पुराण' शब्दका उल्लेख मिलता है । इसी लिये आजकलके पुराण वैदिक युगके सिद्ध नहीं होते । वहाँ आज मनुष्य शब्द मिले तो आजकलका मनुष्य वैदिक युगका न हो जायगा।
दूसरी बात यह है कि इन पुराणोंने जब ऋषभदेवका एक स्वरसे उल्लेख किया तब यही मालूम होता है कि ऋषभदेव नामके कोई प्राचीन ऋषि थे जिनको जैनियोंने रामादिकी तरह अपना पात्र बना लिया । अगर ऋषभदेव जैन-तीर्थकर होते तो उन्हें जैनियोंके शत्रु क्यों अपनाते ! जब वे जैनियोंकी निंदा ही करते हैं तब जो जैनधर्मके संस्थापक हैं उनकी निन्दा न करके अपनानेका कार्य कैसे करते ? इससे वे वैदिक पात्र ही सिद्ध होते हैं ।
हाँ, यह बात अवश्य है कि वैदिक धर्मोमें जो स्थान पहले इन्द्रादि देवोंको प्राप्त था और पीछेसे जो स्थान विष्णु आदिको प्राप्त हो गया, वह स्थान ऋषभदेवको नहीं था । इधर जैनियोंने उन्हें अपना आद्य तीर्थकर माना था, इस लिये जैनियोंमें ऋषभदेवकी मान्यता बढ़ जाय यह बात स्वाभाविक है । परन्तु इससे ऋषभदेव जैन पुरुष नहीं हो जाते । खैर, पुराणोंके उल्लेख व्यर्थ हैं।
प्रश्न २–भगवान् ऋषभदेव यदि वैदिक महापुरुष होते तो वैदिक साहित्यमें इनका जीवन वैदिक ढंगका मिलना चाहिये था ।