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जैनधर्म-मीमांसा
भी लोगोंने भक्तिके वश जन्मसे ही महावीरको तीर्थंकर मान लिया और अनेक तरहके अलौकिक तथा अविश्वसनीय अतिशयोंसे उनके जीवन के स्वाभाविक सौन्दर्यको ग्रामीण बना डाला ।
मैं पहले ही कह चुका है कि जिस प्रकार के अतिशयोंसे भक्त लोग खुश हुआ करते हैं उनसे किसी भी महात्माका महत्त्व नहीं बढ़ता । विश्व के उद्धारके लिये 'महात्मा' की आवश्यकता है, ' महर्द्धिक 'की नहीं । अलौकिक घटनाओंसे मढ़ा हुआ पहले तो अविश्वसनीय होता है । अगर किसीने विश्वास भी किया तो वह उसके नामपर सिर झुका सकता है, परन्तु उसका अनुकरण नहीं कर सकता । जो हमारे लिये अनुकरणीय नहीं है उसकी पूजा निरर्थक है ।
इन अलौकिक और अविश्वसनीय घटनाओंको दूर करके भी म० महावीरके जीवन में हम इतनी महत्ता देखते हैं कि हमारा मस्तक विनयसे झुक जाता है ।
बारह वर्षका तप |
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यह बारह वर्षका समय म० महावीरके जीवनका बहुत महत्त्वपूर्ण समय है। भक्त लोगोंकी मान्यताके अनुसार तो तीर्थंकरोंका मार्ग नियत रहता है । उनको सिर्फ उसपर चलनेका काम ही बाकी रहता है; परन्तु बात ऐसी नहीं है । यह बात किसी साधारण सुधारकके विषयमें ही कही जा सकती है। तीर्थंकरको तो मार्गपर चलने के साथ मार्ग खोजना पड़ता है और मार्ग बनाना पड़ता है आज हम जैन मुनिकी चर्या जैसी समझते हैं और म० महावीरने भी कैवल्य प्राप्त होनेके बाद जैसे नियमोपनियम बनाये थे वे सब उनको पहलेसे ही मालूम नहीं थे । परन्तु उनको जैसे जैसे
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